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क्यों?

क्यों सुखों को ब्याहने की चाह में
तुम दुखों की मांग फिर से भर चले?

कब कहा था जुगनुओं के प्राण ले
तुम उजाला घर हमारे बांटना?
हम न मांगेंगे कभी अब रश्मियां
बस नयन में रजनियाँ मत आंजना

हम नहीं उस ओर आएँगे कभी
तुम जिसे प्राची दिशा कहकर चले

है अभागे भाग्यवीरो का चयन
चल पड़ें हैं नापने नियति चरण
ये न हो इच्छाओं के अमरत्व को
मिल सके उस लोक बस जीवन-मरण

सब उड़ाने टूटकर बिखरी वहीं
जिस तरफ़ उन पंछियों के पर चले

चंद्रहारों की दमक विष घोलती
चूड़ियों से चूड़ियां अनबोलती
डस न ले उसको कहीं काली घटा
अब नहीं वो कुन्तलों को खोलती

तुम गए परदेस क्या ऐसा लगा
ज्यों सुहागिन के सभी ज़ेवर चले

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

ओस की बूँदें पड़ीं तो

ओस की बूँदें पड़ीं तो पत्तियाँ ख़ुश हो गईं
फूल कुछ ऐसे खिले कि टहनियाँ ख़ुश हो गईं

बेख़ुदी में दिन तेरे आने के यूँ ही गिन लिये
एक पल को यूँ लगा कि उंगलियाँ ख़ुश हो गईं

देखकर उसकी उदासी, अनमनी थीं वादियाँ
खिलखिलाकर वो हँसा तो वादियाँ ख़ुश हो गईं

आँसुओं में भीगे मेरे शब्द जैसे हँस पड़े
तुमने होठों से छुआ तो चिट्ठियाँ ख़ुश हो गईं

साहिलों पर दूर तक चुपचाप बिखरी थीं जहाँ
छोटे बच्चों ने चुनी तो सीपीयाँ ख़ुश हो गईं

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी