जूता

मैं तो जब भी आपके घर आऊंगा इस बदलते वक़्त में एक आईना दे जाऊंगा जो मेरी रोशनाई में चमकती ख़ून की रंगत मिले मेरी विलम्बित बाँसुरी में दर्द की हाँफ़ती संगत मिले फिर भी छिटक कर दूर न जाना प्रिये साथ ही रहना मेरे मैं जानता हूँ इक क़दम भी मेरे बिन तुम चल न पाओगे तेरे पैर में यूँ काटकर मैंने बस इतना कहा- ”मैं आज जूता हूँ तेरा ….पर कल मैं भी पूरा जिस्म था।” ‘मैं भी पूरा जिस्म था।’ © Vivek Mishra : विवेक मिश्र