वो तनहा है

साथ में जो भी सच के रहता है आज के दौर में वो तनहा है मेरी आँखों में देख वो बोला तेरा आँसू से कोई रिश्ता है ख़ून में ज्वार अब नहीं उठता जिस्म में और कुछ ही बहता है ख़ुद को देखूँ तो किस तरह देखूँ अक़्स भी अजनबी-सा लगता है तुम बिछड़ जाओ ये सहूँ कैसे मैंने दुनिया से तुमको छीना है लोग भी सोचते हैं अब अक़्सर क्या-क्या ‘अद्भुत’ ग़ज़ल में कहता है © Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’