धरती की गुहार

मेघ तुम बहरे हुए रूठे हुए हो पाहुने से गाँव तक आए तो हो पर हो दूर ही ठहरे हुए फट गई मैं एड़ियों-सी धूप में तपते हुए घाव हैं जो नित नई एक चोट खाकर …और भी गहरे हुए एक थी बस आस तुमसे तुम भी पीछे हट गए हाथ अब कैसे उठाऊँ मैं तुम्हें कैसे बुलाऊँ जो बुलाते थे तुम्हें दो हाथ मेरे नीम, पीपल हैं नहीं अब कट गए मैं तुम्हारी आस में रोऊँ, कराहूँ, सूखी जाऊँ पर नयन में नीर भरकर अब तुम्हें कैसे बुलाऊँ सूखी मेरे डर की नदिया घाट इसके गंदगी से पट गए इस छोर से उस छोर तक मैं एक थी अब मेरे ऊपर कितने आंगन, कितने चूल्हे बँट गए साल बीते आए हो तुम चार छींटे लाए हो तुम एक सावन क्या करेगा यहाँ कितने पतझर घट गए © Vivek Mishra : विवेक मिश्र