पारिजात

जाते हुए तुमने कहा था- जो एक बूंद तेरे नेह की थी अधरों पे मेरे आ गिरी बह रही है आज तक मेरे रक्त में उल्लास-सी चहक उसकी मेरे भीतर गूंजती है आज भी आज भी खिलती हैं कलियाँ तेरी उस मुस्कान से आज भी सूखी नहीं हैं उन चुम्बनों की ओस आज भी इस देह की हर लहलहाती शाख़ से मैं सुवासित महकती हूँ दिन-दोपहर हर शाम और रात के चारों पहर जो एक बूंद तेरे नेह की थी अधरों पे मेरे आ गिरी तब से लिए वह नेह तोड़ती सीमा समय की मैं छोड़ती जाती हूँ अंकुर नेह के अब कहीं पतझर नहीं चहुँ ओर बस मधुमास है। …वह बूंद अमृत थी और मेरे हृदय में पुष्प जो उसने खिलाया वह पारिजात था! © Vivek Mishra : विवेक मिश्र