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तुम्हारी याद आती है

अभी झंकार उस पल की ह्रदय में गुनगुनाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

नहाई हैं मधुर-सी गंध के झरने में वो बातें
तुम्हारे प्यार के दो बोल वो मेरी हैं सोगातें
अभी कोयल सुहानी शाम में वो गीत गाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

हवाओं से रहा सुनता हूँ मन का साज अब तक भी
फिज़ाओं में घुली है वो मधुर आवाज अब तक भी
वो मुझको पास अपने खींचकर हरदम बुलाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हें ही सोचता रहता हूँ ये साँसें हैं तुमसे ही
अचानक चुभने लगती है मुझे मौसम की खामोशी
ओ’ बरबस आँसुओं से मुस्कराहट भीग जाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

तुम्हें गर भूलना चाहूँ तो ख़ुद को भूलना होगा
मगर जीना है तो कुछ इस तरह भी सोचना होगा
कठिन ये ज़िन्दगी आसान लम्हे भी तो लाती है
यही सच है मुझे अब भी तुम्हारी याद आती है

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

समय

जब समय गढ़ने चलेगा पात्र नूतन
तुम नहीं देना कभी परिचय हमारा

धर चलेगी अंजुरी पर अंजुरी सौभाग्यबाला
प्रेम की सुधियां चुनेंगी बस उसी दिन घर-निकाला
इक कुलीना मोल लेगी रीतियों से हर समर्पण
जीत कर तुमको नियति से, डाल देगी वरणमाला

ओढ़नी से जोड़ लेगी पीत अम्बर,
और टूटेगा वहीं निश्चय हमारा

मांग भरना जब कुँआरी, देखना ना हाथ कांपे
मंत्र के उच्चारणों को, यति हृदय की भी न भांपे
जब हमारी ओर देखो, तब तनिक अनजान बनना
मुस्कुराएँगी नयन में बदलियां कुछ मेघ ढांपे

जग नहीं पढ़ता पनीली चिठ्ठियों को
तुम समझ लेना मग़र आशय हमारा

स्वर्गवासी नेह को अंतिम विदाई सौंप आए
अब लिखे कुछ भी विधाता, हम कलाई सौंप आए
अब मिलेंगे हर कसौटी को अधूरे प्राण अपने
हम हुए थे पूर्ण जिससे वो इकाई सौंप आए

उत्तरों की खोज में है जग-नियंता
इक अबूझा प्रश्न है परिणय हमारा

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

 

छल

मेरे गीतों का कहना है,
मैं उनसे छल कर बैठी हूँ

लिखने बैठी थी नेह मग़र पीड़ा के छंद बना बैठी
अनुबंधों की सीमाओं तक, बिखरे संबंध बना बैठी
इक ताना-बाना बुनने बैठी थी मैं अपने जीवन का
शब्दों से मन के आँचल में झीने पैबन्द बना बैठी

बतलाते हैं मुझको अक्षर, अपराध नहीं ये क्षम्य कभी
रच कर सारे उल्टे सतिये, पल-पल मंगल कर बैठी हूँ

इन गीतों को विश्वास रहा, मैं अक्षर चंदन कर दूंगी
अमरत्व पिए आनंद जहां, कविता नंदनवन कर दूंगी
सुख गाएगा कविता मेरी, दुख गूंगा होकर तरसेगा
जिस रोज़ स्वरा बन गाऊँगी, धरती में स्पंदन कर दूंगी

लेकिन पन्नों पर वो उतरा, जो मेरे मन में बैठा था
गीतों की दुनिया में तबसे, परिचय ‘पागल’ कर बैठी हूँ

सुन गीत! प्रभाती मन रख कर, संध्या का गान नहीं गाते
सूखे सावन के आंगन में मेघों के राग नहीं भाते
प्यासे के कुल जन्मीं कोई, गंगा अभिजात नहीं होती
हो भाग अमावस जिनके वो, चंदा को ब्याह नहीं लाते

इतने पर भी ‘मन हार गया’, मुझको ऐसा स्वीकार नहीं
सपनों के बिरवे बो-बो कर, आंखे जंगल कर बैठी हूँ

कैसे समझाऊं इन सबको, ये गीत नहीं हैं, दुश्मन हैं
इनसे कुछ भी अनछुआ नहीं, ये गीत नहीं, मेरा मन है
इनको तजना असमंजस तो इनसे बचना अपराध हुआ
ये राधा हैं, ये कान्हा हैं, ये गीत नहीं, वृंदावन है

जैसे भी हो मुस्काना है, गीतों की ख़ातिर गाना है
दो-चार उजालों की ख़ातिर, जीवन काजल कर बैठी हूँ

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

क्यों?

क्यों सुखों को ब्याहने की चाह में
तुम दुखों की मांग फिर से भर चले?

कब कहा था जुगनुओं के प्राण ले
तुम उजाला घर हमारे बांटना?
हम न मांगेंगे कभी अब रश्मियां
बस नयन में रजनियाँ मत आंजना

हम नहीं उस ओर आएँगे कभी
तुम जिसे प्राची दिशा कहकर चले

है अभागे भाग्यवीरो का चयन
चल पड़ें हैं नापने नियति चरण
ये न हो इच्छाओं के अमरत्व को
मिल सके उस लोक बस जीवन-मरण

सब उड़ाने टूटकर बिखरी वहीं
जिस तरफ़ उन पंछियों के पर चले

चंद्रहारों की दमक विष घोलती
चूड़ियों से चूड़ियां अनबोलती
डस न ले उसको कहीं काली घटा
अब नहीं वो कुन्तलों को खोलती

तुम गए परदेस क्या ऐसा लगा
ज्यों सुहागिन के सभी ज़ेवर चले

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

धीर धरना!

जब फलित होने लगे उपवास मन का,
धीर धरना!

मौन से सुनने लगो जब एक उत्तर, मुस्कुराना!
चैन से मिलने लगें दो नैन कातर, मुस्कुराना!
एक पल में, सांस जब भरने लगे मन के वचन सब
पीर से जब सीझनें लग जाएं पत्थर, मुस्कुराना!

बस प्रलय से एक बिंदु कम, नयन में
नीर भरना,
धीर धरना!

चन्द्रमा के पग चकोरी की तरफ चलने लगेंगे
नैन के भी नैन में प्रेमी सपन पलने लगेंगे
क्या सहा है प्रेम ने बस इक मिलन को, देखकर ही,
छटपटा कर, इस विरह के प्राण ख़ुद गलने लगेंगे

सीख जाएंगे मुरारी, बांसुरी की
पीर पढ़ना,
धीर धरना!

खेलने को हर घड़ी सब वार कर प्रस्तुत रहा है
जीतता केवल तभी जब भाग्य भी प्रत्युत रहा है
काम है ये हर सदी में कुछ निराले बावलों का
प्रेम में सब हार कर सब जीतना अद्भुत रहा है

एक तिनके के भरोसे,
जिंदगी का नीड़ गढ़ना
धीर धरना!

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

याद रखना!

अब हमारी याद में रोना मना है
याद रखना!

हम तुम्हें उपलब्ध थे, तब तक सरल थे, जान लो
प्रश्न अनगिन थे तुम्हारे, एक हल थे, जान लो
एक पत्थर पर चढ़ाकर देख लो जल गंग का
हम तुम्हारे प्रेम में कितने तरल थे, जान लो

प्रेम में छल के प्रसव की पीर पाकर
बालपन में मर चुकी संवेदना है
याद रखना!

हम हुए पातालवासी इक तुम्हारी खोज में
प्राण निकलेंगे अभागे एक ही दो रोज़ में
साध मिलने की असंभव हो गई है,जानकर
भूख के मारे अनिच्छा हो गई है भोज में

पूर्ति के आगार पर होती उपेक्षित
बन चुकी हर इक ज़रूरत वासना है
याद रखना!

जो प्रमुख है, वो विमुख है, बस नियति का खेल है
पटरियां अलगाव पर हों, दौड़ती तब रेल है
जानकर अनजान बनना चाहता है मन मुआ
छोड़ चंदन, ज्यों लिपटती कीकरों से बेल है

भूल के आग्रह बहुत ठुकरा चुका है
कुछ दिनों से मन बहुत ही अनमना है
याद रखना!

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

लड़कियां

लड़कियां अच्छा-बुरा, लिखने लगीं हैं !

देखकर अपनी लकीरें, नियति को पहचानती हैं
कुछ ग़लत होने से पहले, कुछ ग़लत कब मानती हैं?
ढूढंने को रंग, भरकर कोर में आकाश सारा
उड़ चली हैं, तितलियों के सब ठिकाने जानती हैं

रात की नींदे उड़ा, लिखने लगीं हैं !

अब नहीं बनना-संवरना चाहती हैं लड़कियां ये
अब नहीं सौगंध भरना चाहती हैं लड़कियां ये
मांग कर पुरुषत्व से कोरा समर्पण नेह का, बस
प्रेम में इक बार पड़ना चाहती हैं लड़कियां ये

आंख से काजल चुरा, लिखने लगी हैं !

अब यही बदलाव इनका, जग हज़म करने लगा है
उत्तरों का भान ही तो प्रश्न कम करने लगा हैं
देखकर विश्वास इनका, डर चुकीं हैं मान्यताएं
अब इन्हें स्वीकार जग का हर नियम करने लगा है

भाग्य में कुछ खुरदुरा, लिखने लगी है !

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

बस वही

फूल जिसके, गंध जिसकी, मेल खाएगी हवा से
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही उपवन हँसेगा

मालियों को कह रखा है, बीज वे अनुकूल बोएं
जो चुनिंदा उंगलियों में चुभ सकें, वो शूल बोएं
छांव का सौदा करें जो, पात हों वे टहनियों पर
जो उखड़ जाएं समय पर, वृक्ष वो निर्मूल बोएं

जो सदा आदेश पाकर बेहिचक महका करेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही चन्दन हँसेगा

है वही जुगनू, सदा जो रौशनी का साथ देगा
भोर को बांटे उजाला, रात के घर रात देगा
जो अंधेरा देख कर आँखें चुरा ले, सूर्य है वह
दीप जो तम से लड़ेगा, प्राण को आघात देगा

जो हमेशा धूप का आगत लिए तत्पर रहेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही आँगन हँसेगा

हर क़लम वैसा लिखेगी, जो उसे बतलाएंगे वे
जो चुनेंगे राह अपनी, कम प्रशंसा पाएंगे वे
स्याहियो! लेकर लहू तैयार बैठो तुम अभी से
चोट जनवादी बनाएगी अगर, बन जाएंगे वे

जो उन्हीं के गीत का स्वर साधकर कोरस बनेगा
अब यही निर्णय हुआ है, बस वही लेखन हँसेगा

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

आंसू

आज अंतस में प्रलय है, आज मन पर मेघ छाए
पीर प्राणों में समो कर, आज आंसू द्वार आए

गिर रहा अभिमान लेकर, एक आंसू था वचन का
एक आंसू नेह का था, एक अनरोए नयन का,
एक में गीले सपन की भींजती अंगड़ाइयां थी
एक, निर्णय भाग्य का था, एक आंसू था चयन का

एक आंसू था खुशी का, आ गया बचते-बचाते
लांघ कर जैसे समंदर बूंद कोई पार आए

एक ने जा सीपियों में मोतियों के बीज छोड़ें
एक ने चूमा पवन को, ताप के प्रतिमान तोड़ें
एक को छूकर अभागे ठूँठ में वात्सल्य जागा
स्वाति बनकर एक बरसा, चातकों के प्राण मोड़ें

एक आंसू, हम सजाकर ले चले अपनी हथेली
और गंगाजल नयन का पीपलों में ढार आएं

एक सावित्री नयन से गिर पड़ा तो काल हारा
एक आंसू के लिए ही राम ने संकल्प धारा
एक आंसू ने हमेशा कुंतियों में कर्ण रोपा
एक आंसू शबरियों की पीर का भावार्थ सारा

एक आंसू ने पखारे जब शिलाओं के चरण, तब
इस धरा पर देवताओं के सभी अवतार आएं

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

 

खो नहीं जाना

ढूंढना आसान है तुमको बहुत, पर
मीत मेरे, खो नहीं जाना कभी तुम !

पीर की पावन कमाई, चार आंसू , एक हिचकी
मंत्र बनकर प्रार्थनाएं मंदिरों के द्वार सिसकी
पर तुम्हारी याचनाओं को कहाँ से मान मिलता,
देवता अभिशप्त हैं ख़ुद, और है सामर्थ्य किसकी?

शिव नहीं जग में, प्रणय जो सत्य कर दे
माँगने हमको नहीं जाना कभी तुम !

तृप्ति से चूके हुए हैं, व्रत सभी, उपवास सारे
शूल पलकों से उठाए, फूल से तिनके बुहारे
इस तरह होती परीक्षा कामनाओं की यहां पर
घण्टियों में शोर है पर देवता बहरे हमारे

महमहाए मन, न आए हाथ कुछ भी
आस गीली बो नहीं जाना कभी तुम !

जग न समझेगा मग़र, हम जानते हैं मन हमारा
प्रीत है पूजा हमारी, मीत है भगवन हमारा
हम बरसते बादलों से क्यों कहें अपनी कहानी
और ही है प्यास अपनी, और है सावन हमारा

गुनगुनाएं सब, न समझे पीर कोई
गीत का मन हो नहीं जाना कभी तुम !

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला