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प्रामिथस

प्रामिथस स्वर्ग से ज्ञान की आग चुरा लाया था। दण्ड स्वरूप स्वर्ग के मालिक ज्रियस ने उसे एक चट्टान से बंधवा दिय। हर सुबह आसमान से एक बाज़ उतरता और प्रामिथस के जिगर को नोच-नोच कर खाता। वर्षों उसे यह दण्ड दिया गया। मिथक के अनुसार कालान्तर में हरक्युलिस के हाथों वह इस दुधर्ष दण्ड से मुक्त हो पाया।

ओ रे ओ!
मेरे जग के शासक कठोर!
स्वीकारता हूँ
मैं लुक-छिप
तेरा मर्म चुरा लाया था-नीचे
यह अंगारा
आपेक्षित था
भोली और निरीह
भटकती
ठोकर खा खा गिरती-उठती
तेरी रौरव क्रूर यातना की शिकार
मेरी प्यारी दुनिया कोऋ
आवश्यक था
मैं कर गुज़रूँ
यह तुझको जो आज-
ठीक ही
-लगता है
मेरा संगीन ज़ुर्म
अक्षम्य पाप!

उफ रे तेरा भीषण प्रकोप!
आलोक मुखर जागृति हमारी
हम दुनियादारों की
केवल इसीलिए क्या
फौलादी ज़ंजीरों में जकड़ा तन तूने
चट्टानों के साथ
बांध रखा है?
लेकिन
एक मेरा मन भी है पागल!
उसको बांधे तो मैं जानूँ

यह ज़ालिम ख़ुंखार बाज़
हर रोज़ पठाया तेरा
सूने में से तैर आता है
मेरा जिगर नोच खाने को…

खा ले
नित्य नया निर्माण
यहाँ भी
कभी न रुक पाएगा!
बतला
क्या ऐसा भी हुआ
कि तेरा तातारी यह
कभी लौटा पहुँचा होवे अतृप्त?
नहीं ना!
पर तू दिलवालों को भी पहचाने
तब तो!

विश्व नियंता सही
मगर तू हृदयहीन है!

जाने भी दे
क्या रखा है
इस थोथे प्रभाव हीन रोष में?
हम
और तुझ से
अब भी हों भयभीत?
नहीं
बस बहुत हो चुकाऋ
तनी-तनी ये भौहें
चढ़ा-चढ़ा सा चेहरा
यह मुद्रा विद्रूप
हँसी आती है सचमुच!

देख
आज तक जिन्हें
बहुत बहकाया
भरमाया, भटकाया
और सताया तूने

उनके संग रुपहली
और धुपहली
और सुनहली
ऊषा फागुन खेल रही है!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

अलिफ़ लैला

शाह की सबसे चहेती मलिका बेवफ़ा निकली। औरत ज़ात से नफरत हो गई। हर रोज़ नई शादी करता, हर रात सुहागरात। मगर सुबह होते ही हर नई दुल्हन को मौत के घाट उतार दिया जाता। सहराज़ादी, उसके बूढ़े मंत्री की बेटी। उसने भी नृशंस शाह के साथ शादी रचाई। मगर अपने साथ ले गई अपनी छोटी-सी बहन को। रात को सोने से पहले छोटी बहन ने कहानी सुनने की ज़िद्द की। सहराज़ादी ने कहानी छेड़ी जो सुबह तक ख़त्म नहीं हुई। शाह को भी अच्छी लगी। यूँ ही कहानी में से कहानी निकलती चली गई। पूरी 1001 रातें बीत गईं। शाह का हृदय परिवर्तन हुआ। सहराज़ादी आख़िर तक उसकी मलिका बनकर जी।

नीड़ छोड़कर उड़ चला कल्पना पाखी
वह देखो भर रहा काकली
चुभो-चुभो कर चोंच शून्य में मेरे
मण्डराता फिर रहा
बुद्धि के चक्रव्यूह पर

सांझ ढले
रोमिल डैनों के चप्पू
कहाँ तुझे तैरा लाए
रे पगले!

अलिफ़ लैला का माया लोक
बहुत दिन हुए
यहीं तो
राजदुलारे स्वप्न लला
रुन-रुना-रुना आनन्द पैंजनी
किलक-थिरक नाचा करते थे!

दूर खजूरों के पीछे
वह देखो वह
नया ईद का चांद उभर आया है
ऊँची मीनारों से
अल्लाऽऽऽहू अकबर
अल्लाऽऽऽहू अकबर
उठने लगी अज़ानें

दूध नहाए गुंबद
देख रहे हैं
क्या कोई मरमरी स्वप्न?

विरही होगा
जो दूर
रात के सन्नाटे में
बैठा अपनी तड़प कस रहा है
रुबाब के तारों पर

कहवाख़ानों में
दूर-दूर के सौदागर
अपनी थैली के गौहर
नाच लुभा लेने वाले
गुलबदन सनम की अदा-अदा पर
लुटा रहे हैं!

आहिस्त:
आहिस्त:
किसी प्रेत की दन्तावलि-सी
अंधियारे में चमक रहीं
अधखुली खिड़कियाँ
उस नृशंस शाह के महलों की
जिसकी नित्य नई दुल्हनें
हज़ारों
अपनी-अपनी सुहागरात का
देख न पाईं कभी सवेरा!

सहराज़ादी
बूढ़े मंत्री की वह सुघड़ साहसी बेटी
क्या अभिनय कर रही सुलाने का
अपनी नटखट गुड़िया को
बड़ी चतुर है-
जान-बूझ कर
बहुरंगी गाथा-गुत्थी के
लच्छों पर लच्छे
उलझाने लग गई
वाह री गल्प मोहिनी तेरा जादू
फँसा लिया निर्मम साजन को!

बाहर
यह लो लगी सरकने
आसमान के पल्लू की झिलमिली किनारी
प्राची की दुल्हन का
गया उघड़ वह अलस लजाया मुखड़ा
इधर
निशा के मसि पात्र में
झुटपुट घुलने लगी सफेदी

कौन नगरिया
बढ़ा चला जा रहा कारवाँ
टिनटिना टालियाँ
पलकों पर कर रहीं टोटका
नयन झील में लगी तैरने
स्वप्न फरिश्तों की अल्हड़ अलमस्त टोलियाँ
घिर-घिर आने लगी निदरिया!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

छोटा-सा लड़का

कहीं एक छोटा-सा लड़का
छोटे कस्बे में रहता था
इक दिन वो भी बड़ा बनेगा
अक्सर सबसे ये कहता था
उन छोटी-छोटी ऑंखों में
सपने काफ़ी बड़े-बड़े थे
उसके मन के भीतर जाने
कितने अरमां भरे पड़े थे

अपने इन सपनों को जब वो
अपनी ऑंखों में भरता था
पंख तौल कर अपने जब वो
उड़ने की सोचा करता था
तब उसको लगता कस्बे का
बस मुट्ठी भर आसमान है
इतने से उसका क्या होगा
उसकी तो लम्बी उड़ान है

यही सोचता रहता दिन भर
आख़िर वो दिन कब आएगा
जब वो अपने पंख पसारे
खुले गगन में उड़ जाएगा
इक दिन क़िस्मत ले ही आई
उसे इक ऐसे महानगर में
जहाँ उजाला ही रहता था
सात दिवस के आठ पहर में

असली सूरज के ढलते ही
नक़ली सूरज उग आते थे
इसी वजह से यहाँ परिन्दे
दूर-दूर तक उड़ पाते थे
गाँव-गली में शाम ढले ही
जब दिन धुंधलाने लगता है
तब लोगों को रात बिताने
घर वापस आना पड़ता है

लेकिन इस मायानगरी का
केवल दिन से ही था नाता
इस नगरी में छोटा लड़का
लम्बी दूरी तक उड़ जाता
अब वो इक छोटा-सा लड़का
पंख पसारे ऊँचा उड़ता
आगे ही बढ़ता रहता था
लेकिन पीछे कभी न मुड़ता

उड़ते-उड़ते कभी-कभी जब
याद उसे कस्बा आता था
तब जाने क्यों छोटा लड़का
कुछ उदास-सा हो जाता था
तब वो रुककर सोचा करता
क्या ये रास उसे आएगा
क्या वो इन कोमल पंखों से
सारा जीवन उड़ पाएगा

कभी अगर इस महानगर की
हवा श्वास में भर जाती थी
तो पल भर में ही वो उसका
जीवन दूभर कर जाती थी
इस अनजाने महानगर में
कोई किसी का मीत नहीं है
यहाँ सिर्फ़ बेगानापन है
अपनेपन की रीत नहीं है

घबराता जब छोटा लड़का
तभी एक झोंका आता था
और उसी झोंके के संग में
लड़का फिर से उड़ जाता था
हँसते-रोते ही वह लड़का
महानगर में जी लेता था
सुख के दुख के सभी घूँट; वो
धीरे-धीरे पी लेता था

आख़िर सीख लिया उसने भी
थोड़ी चालाकी अपनाना
ज्यादा ऊँचाई पाने को
लोगों के ऊपर चढ़ जाना
अब उसको सारी चालाकी
साधारण सी ही लगती थी
महानगर की हवा उसे अब
प्राणवायु जैसी लगती थी
उसने सीख लिया था अब
संबंधों की सीढ़ी चढ़ लेना
ख़ुद का क़द ऊँचा करने को
औरों को छोटा कर देना
अब वो दिन भर उड़ता रहता
महानगर के आसमान में
कोई बाधा नहीं थी उसको
ऊँची से ऊँची उड़ान में

लेकिन अब छोटे लड़के को
महानगर भी छोटा लगता
अब वो अपने पंख तौलने
और कहीं की सोचा करता
ऐसा ना हो भटक जाए वो
और कहीं से और कहीं पर
ऐसा ना हो आन गिरे वो
नीले नभ से हरी ज़मीं पर

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

कन्या एक कुँवारी थी

कन्या एक कुँवारी थी
छू लो तो चिंगारी थी
वैसे तेज़ कटारी थी
लेकिन मन की प्यारी थी
सखियों से बतियाती थी
शोहदों से घबराती थी
मुझसे कुछ शर्माती थी
बस से कॉलेज आती थी
गोरी नर्म रुई थी वो
मानो छुईमुई थी वो
लड़की इक जादुई थी वो
बिल्कुल ऊई-ऊई थी वो

अंतर्मन डिस्क्लोज किया
इक दिन उसे प्रपोज़ किया
वो पहले नाराज़ हुई
तबीयत-सी नासाज़ हुई
फिर बोली ये ठीक नहीं
अपनी ऐसी लीक नहीं
पढ़ने-लिखने के दिन हैं
आगे बढ़ने के दिन है
ये बातें फिर कर लेंगे
इश्क़-मुहब्बत पढ़ लेंगे
अभी न मन को हीट करो
एमए तो कंप्लीट करो

उसने यूँ रिस्पांड किया
प्रोपोज़ल पोस्टपोंड किया
हमसे हिम्मत नहीं हरी
मन में ऊर्जा नई भरी
रात-रात भर पढ़-पढ़ के
नई इबारत गढ़-गढ़ के
ऐसा सबको शॉक दिया
मैंने कॉलेज टॉप किया

अब तो मूड सुहाना था
अब उसने मन जाना था
लेकिन राग पुराना था
फिर इक नया बहाना था
जॉब करो कोई ढंग की
फिर स्टेटस की नौटंकी
कभी कास्ट का पेंच फँसा
कभी बाप को नहीं जँचा

थककर रोज़ झमेले में
नौचंदी के मेले में
इक दिन जी कैड़ा करके
कहा उसे यूँ जाकर के
जो कह दोगी कर लूंगा
कहो हिमालय चढ़ लूंगा
लेकिन किलियर बात करो
ऐसे ना जज़्बात हरो
या तो अब तुम हाँ कर दो
या फिर साफ़ मना कर दो

सुनकर कन्या मौन हुई
हर चालाकी गौण हुई
तभी नया छल कर लाई
आँख में आँसू भर लाई
हिम्मत को कर ढेर गई
प्रण पर आँसू फेर गई

पुनः प्रपोज़ल बीट हुआ
नखरा नया रिपीट हुआ
थोड़ा-सा तो वेट करो
पहले पतला पेट करो
जॉइन कोई जिम कर लो
तोंद ज़रा-सी डिम कर लो
खुश्बू-सी खिल जाऊंगी
मैं तुमको मिल जाऊंगी

तीन साल का वादा कर
निज क्षमता से ज़्यादा कर
हीरो जैसी बॉडी से
डैशिंग वाले रोडी से
बेहतर फिजिक बना ना लूँ
छः-छः पैक बना ना लूँ
तुझको नहीं सताऊंगा
सूरत नहीं दिखाऊंगा

रात और दिन श्रम करके
खाना-पीना कम करके
रूखी-सूखी खा कर के
सरपट दौड़ लगा करके
सोने सी काया कर ली
फिर मन में ऊर्जा भर ली
उसे ढूंढने निकल पड़ा
किन्तु प्रेम में खलल पड़ा

किसी और के छल्ले में
चुन्नी बांध पुछल्ले में
वो जूही की कली गई
किसी और की गली गई
शादी करके चली गई
अपनी क़िस्मत छली गई

थका-थका हारा-हारा
मैं बदकिस्मत बेचारा
पल में दुनिया घूम लिया
हर फंदे पर लूम लिया
अपने आँसू पोछूँगा
कभी मिली तो पूछूंगा
क्यों मेरा दिल तोड़ गई
प्यार जता कर छोड़ गई

कुछ दिन बाद दिखाई दी
वो आवाज़ सुनाई दी
छोड़ा था नौचंदी में
पाई सब्ज़ी मंडी में
कैसा घूमा लूप सुनो
उसका अनुपम रूप सुनो
वो जो एक छरहरी थी
कंचन देह सुनहरी थी
अब दो की महतारी थी
तीजे की तैयारी थी
फूले-फूले गाल हुए
उलझे-बिखरे बाल हुए
इन बेढंगे हालों ने
दिल के फूटे छालों ने
सपनों में विष घोला था
एक हाथ में झोला था
एक हाथ में मूली थी
खुद भी फूली फूली थी
सब सुंदरता लूली थी
आशा फाँसी झूली थी

वो जो चहका करती थी
हर पल महका करती थी
हिरनी बनी विचरती थी
खुल्ला ख़र्चा करती थी
वो कितनी लिजलिजी मिली
बारगेनिंग में बिजी मिली

धड़कन थाम निराशा से
गिरकर धाम हताशा से
विधिना के ये खेल कड़े
देख रहा था खड़े खड़े
तभी अचानक सधे हुए
दो बच्चों से लदे हुए
चिकचिक से कुछ थके हुए
बाल वाल भी पके हुए
इक अंकल जी प्रकट हुए
दर्शन इतने विकट हुए
बावन इंची कमरा था
इसी कली का भ्रमरा था
तूफानों ने पाला था
मुझसे ज़्यादा काला था
मुझसे अधिक उदास था वो
केवल दसवीं पास था वो
ठगा हुआ सा ठिठक गया
खून के आंसू छिटक गया
रानी साथ मदारी के
फूटे भाग बिचारी के
घूरे मेला लूट गए
तितली के पर टूट गए
रचा स्वयंवर वीरों का
मंडप मांडा ज़ीरो का
गरम तवे पर फैल गई
किस खूसट की गैल गई
बिना मिले वापस आया
कई दिनों तक पछताया

अब भी अक्सर रातों में
कुछ गहरे जज़्बातों में
पिछली यादें ढोता हूँ
सबसे छुपकर रोता हूँ
मुझमें क्या कम था ईश्वर
किस्मत में ग़म था ईश्वर
भाग्य इसी को कहते हैं
अब भी आँसू बहते हैं

© Chirag Jain : चिराग़ जैन