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विकास

एक कमरा था
जिसमें मैं रहता था
माँ-बाप के संग
घर बड़ा था
इसलिए इस कमी को
पूरा करने के लिए
मेहमान बुला लेते थे हम!

फिर विकास का फैलाव आया
विकास उस कमरे में नहीं समा पाया
जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी
उस चादर से बड़े हो गए
हमारे हर एक के पाँव
लोग झूठ कहते हैं
कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं
हक़ीक़त यही
कि जब दरारें पड़ती हैं
तब दीवारें बनती हैं!
पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे
अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं
यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं

फिर हमने बना लिया एक मकान
एक कमरा अपने लिए
एक-एक कमरा बच्चों के लिए
एक वो छोटा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे
एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए
जिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ

पहले मैं फुसफुसाता था
तो घर के लोग जाग जाते थे
मैं करवट भी बदलता था
तो घर के लोग सो नहीं पाते थे
और अब!
जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं
उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।
अब मैं चीख़ता हूँ
तो बग़ल के कमरे से
ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है
और मैं सोच नहीं पाता हूँ
कि मेरी चीख़ की वजह से
वहाँ ठहाके लग रहे हैं
या उन ठहाकों की वजह से
मैं चीख रहा हूँ!

आदमी पहुँच गया हैं चांद तक
पहुँचना चाहता है मंगल तक
पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक
अब हमारा पता तो एक रहता है
पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता

और आज मैं सोचता हूँ
जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ
उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ

अब मुझे अपने बाप की बेटी से
अपनी बेटी अच्छी लगती है
अब मुझे अपने बाप के बेटे से
अपना बेटा अच्छा लगता है
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
अब मेरा बेटा भी कमा रहा है
कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा
और हक़ीक़त यही है दोस्तों
तमाचा मैंने मारा है
तमाचा मुझे खाना भी पड़ेगा

© Surendra Sharma : सुरेंद्र शर्मा

 

तब देखना

दुनिया बनाने वाले आजकल दुनिया ये
हो गई है कितनी ख़राब तब देखना
वासना का तन से ख़ुमार जब उतरेगा
पाप और पुण्य का हिसाब तब देखना
कितने गिरे हैं और कितने गिरेंगे हम
अभी मत देखिए जनाब तब देखना
बाप और भाइयों के बीच चौकड़ी में बैठ
बेटियाँ परोसेंगी शराब तब देखना

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

दादी और नानियाँ

तितली के टूटे हुए पंख, सीपियों के शंख
और किसी फटे हुए चित्र की निशानियाँ
सपनों में सजते हुए वो शीशे के महल
और उन महलों में राजा और रानियाँ
रात-दिन बेशुमार ज़िन्दगी की रफ्तार
ले के कहाँ आ गईं ये हमको जवानियाँ
किस को पता है ओढ़ के उदासी जाने किस
कोने में पड़ी हुई हैं दादी और नानियाँ

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

छोटा-सा लड़का

कहीं एक छोटा-सा लड़का
छोटे कस्बे में रहता था
इक दिन वो भी बड़ा बनेगा
अक्सर सबसे ये कहता था
उन छोटी-छोटी ऑंखों में
सपने काफ़ी बड़े-बड़े थे
उसके मन के भीतर जाने
कितने अरमां भरे पड़े थे

अपने इन सपनों को जब वो
अपनी ऑंखों में भरता था
पंख तौल कर अपने जब वो
उड़ने की सोचा करता था
तब उसको लगता कस्बे का
बस मुट्ठी भर आसमान है
इतने से उसका क्या होगा
उसकी तो लम्बी उड़ान है

यही सोचता रहता दिन भर
आख़िर वो दिन कब आएगा
जब वो अपने पंख पसारे
खुले गगन में उड़ जाएगा
इक दिन क़िस्मत ले ही आई
उसे इक ऐसे महानगर में
जहाँ उजाला ही रहता था
सात दिवस के आठ पहर में

असली सूरज के ढलते ही
नक़ली सूरज उग आते थे
इसी वजह से यहाँ परिन्दे
दूर-दूर तक उड़ पाते थे
गाँव-गली में शाम ढले ही
जब दिन धुंधलाने लगता है
तब लोगों को रात बिताने
घर वापस आना पड़ता है

लेकिन इस मायानगरी का
केवल दिन से ही था नाता
इस नगरी में छोटा लड़का
लम्बी दूरी तक उड़ जाता
अब वो इक छोटा-सा लड़का
पंख पसारे ऊँचा उड़ता
आगे ही बढ़ता रहता था
लेकिन पीछे कभी न मुड़ता

उड़ते-उड़ते कभी-कभी जब
याद उसे कस्बा आता था
तब जाने क्यों छोटा लड़का
कुछ उदास-सा हो जाता था
तब वो रुककर सोचा करता
क्या ये रास उसे आएगा
क्या वो इन कोमल पंखों से
सारा जीवन उड़ पाएगा

कभी अगर इस महानगर की
हवा श्वास में भर जाती थी
तो पल भर में ही वो उसका
जीवन दूभर कर जाती थी
इस अनजाने महानगर में
कोई किसी का मीत नहीं है
यहाँ सिर्फ़ बेगानापन है
अपनेपन की रीत नहीं है

घबराता जब छोटा लड़का
तभी एक झोंका आता था
और उसी झोंके के संग में
लड़का फिर से उड़ जाता था
हँसते-रोते ही वह लड़का
महानगर में जी लेता था
सुख के दुख के सभी घूँट; वो
धीरे-धीरे पी लेता था

आख़िर सीख लिया उसने भी
थोड़ी चालाकी अपनाना
ज्यादा ऊँचाई पाने को
लोगों के ऊपर चढ़ जाना
अब उसको सारी चालाकी
साधारण सी ही लगती थी
महानगर की हवा उसे अब
प्राणवायु जैसी लगती थी
उसने सीख लिया था अब
संबंधों की सीढ़ी चढ़ लेना
ख़ुद का क़द ऊँचा करने को
औरों को छोटा कर देना
अब वो दिन भर उड़ता रहता
महानगर के आसमान में
कोई बाधा नहीं थी उसको
ऊँची से ऊँची उड़ान में

लेकिन अब छोटे लड़के को
महानगर भी छोटा लगता
अब वो अपने पंख तौलने
और कहीं की सोचा करता
ऐसा ना हो भटक जाए वो
और कहीं से और कहीं पर
ऐसा ना हो आन गिरे वो
नीले नभ से हरी ज़मीं पर

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

चुप्पियाँ तोड़ना जरुरी है

चुप्पियाँ तोड़ना ज़रुरी है
लब पे कोई सदा ज़रुरी है

आइना हमसे आज कहने लगा
ख़ुद से भी राब्ता ज़रुरी है

हमसे कोई ख़फ़ा-सा लगता है
कुछ न कुछ तो हुआ ज़रुरी है

ज़िंदगी ही हसीन हो जाए
इक तुम्हारी रज़ा ज़रुरी है

अब दवा का असर नहीं होगा
अब किसी की दुआ ज़रुरी है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक
इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक

इन्तिहा हर किसी की होती है
दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक

मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं
ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक

कोई जैसे कि अजनबी से मिले
ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक

जिसको आना है क्यूँ नहीं आता
अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी