रस की बरखा

मैं रस की बरखा कर लूँगा तुम अपना उर-आँगन दे दो ! बेचारा बादल क्या जाने, तप्त-धरा की प्यास कहाँ है? भू को पता नहीं रस-रंजित-मेघों का अधिवास कहाँ है? दोनों की पहचान पुरानी फिर भी मिलन नहीं होता है; थोड़ी-सी दूरी कम कर दे, दुनिया को अवकाश कहाँ है ? चिर-विछोह स्वीकार करूँगा, मिलने का आश्वासन दे दो ! नन्दन-कानन की सुषमा भी, सूनी-सूनी बिना तुम्हारे, कब तक सहूँ, दुसह यह पीड़ा, और रहूँ कब तक मन मारे? कलियों तक अलियों का गुंजन, अब तक पहुँच नहीं पाया है, चातक का दूरागत-क्रंदन, कब सुन पाते घन कजरारे? मैं पढ़ लूँग मंत्र कान में, अधरों तक चन्द्रानन दे दो ! धरती और गगन का मैंने, मुग्ध कर लिया कोना-कोना; पर मेरे भोले मन-मृग पर, कौन कर गया जादू-टोना? मरूथल की उर्वरा पिपासा, सागर को दे रही चुनौती; अनहोनी यह घटी न घटना, हुआ वही, जो कुछ था होना; मैं दुर्गम-पथ तय कर लूँगा, चरणों का अवलम्बन दे दो ! © Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’