मैं अकेला हूँ

मैं अकेला हूँ, अकेली रात है ! फिर भी मैं बेचैन हूँ, क्या बात है ? रात भी मेरी तरह मजबूर है, चार दिन की चाँदनी में चूर है; टूट कर तारे बताते हैं यही- भूमि से आकाश फिर भी दूर है; पर क्षितिज पर देखता हूँ व्योम ने, भूमि के आगे झुकाया माथ है ! मुझको मलयानिल मनाती रह गई, बात मधुवन की सुनाती रह गई, फूल हँसते ही रहे, मैं कब रूका ? ओस भी आँसू बहाती रह गई; चार बूँदे क्या भिगो सकतीं मुझे ? मेरी आँखों में छिपी बरसात है ! रात है, रवि की अधूरी साधना, रात है, शशि की सफल आराधना; ये धरा, अम्बर, सलिल, पावक, समीर, है सभी तो आदि कवि की कल्पना; जग जिसे समझा किया कविता-कलाप, वह किसी क स्नेह की सौगात है ! © Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’