दूर करो या पास बुला लो

साँसों का क्या ठौर-ठिकाना, कौन करे किसकी मेहमानी ? यहाँ किसी के दिन अपने हैं, और किसी की रात बिरानी, अपनी-अपनी राह सभी की किसकी विदा, कहाँ का स्वागत ? रमते को जोगी कहते हैं, बहते को कहते हैं ’पानी’; पमझर में बहार बाँधे हूँ; निर्जन हूँ, उद्यान नहीं हूँ; दूर करो या पास बुला लो, मैं कोई मेहमान नहीं हूँ ! कर लूँगा स्वीकार मरण को, घृणा तुम्हारी सह सकूँगा; और व्यर्थ की सीमाओं में, रहना चाहूँ, रह न सकूँगा; अगर मूक-मन की भाषा को, पढ़ना तुम्हें नहीं आता तो- तुम पूछो, चाहे मत पूछो, जो कहना है कह न सकूँगा; तुम जैसे निष्ठुर-ठाकुर की पूजा हूँ, पाषाण नहीं हूँ; दूर करो या पास बुला लो, मैं कोई मेहमान नहीं हूँ ! शलभों की गति-विधि से परिचित, जैसे रहती जलन आग की; मधुपों के अधरों तक आती, जैसे पावनता पराग की ; तुम से मेरा ऐसा क्या है, बुरा न मानो तो बतला दूँ- मेरी साँसों तक आई है, गंध तुम्हारे अंग-अंग की; तुम गाओ, आलाप न समझूँ, इतना तो नादान नहीं हूँ ! दूर करो या पास बुला लो, मैं कोई मेहमान नहीं हूँ ! © Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’