Tag Archives: Poems

दूसरा प्यार

फिर से मन में अंकुर फूटे, फिर से आँखों में ख्वाब पले
फिर से कुछ अंतस् में पिघला, फिर से श्वासों से स्वर निकले
फिर से मैंने सबसे छुपकर, इक मन्नत मांगी ईश्वर। से
फिर से इक सादा-सा चेहरा, कुछ ख़ास लगा दुनिया भर से
फिर इक लड़की के इर्द-गिर्द, जीवन के सब प्रतिमान बने
फिर इक चेहरे के हाव-भाव, सुन्दरता के उपमान बने
मुझको लगता था ये सब कुछ शायद इस बार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

फिर से मेरे मोबाइल में इक नम्बर सबसे ख़ास बना
फिर से बदला हर पासवर्ड, इक नाम मेरा विश्वास बना
फिर से इक मद्धम रिंगटोन, आँखों की चमक। बढ़ाती थी
फिर से इक लड़की की फोटो, मुझसे घण्टों बतियाती थी
उसको मैसिज कर सोना था, उसके मैसिज से जगना था
उसका हर मैसिज, हर इक मेल, बस अलग संभाले रखना था
सोचा था वो इक एपिसोड, रीप्ले हर बार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

फिर से इक चंचल लड़की की हर बात सुहानी लगती थी
केवल वो लड़की समझदार, दुनिया दीवानी लगती थी
उसकी मम्मी, उसके पापा, उसकी हर चीज़ ज़रूरी थी
अपने जीवन के ख़ास काम भी केवल इक मजबूरी थी
फिर से मैं सारी दुनिया की नज़रों में बस बेकार हुआ
फिर से ख़र्चे दोगुने हुए, आमदनी घटी, उधार हुआ
मेरा मस्तिष्क मेरे दिल के हाथों लाचार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

फिर से कुछ बेमतलब बातें, अधरों पर बन मुस्कान खिलीं
फिर से इक लड़की की यादें, दिल के। काग़ज़ पर लिखी मिलीं
फिर से नयनों की कोरों पर, इक आँसू आ ठिठका, ठहरा
फिर से उसकी स्मृतियों ने स्वप्नों पर बिठलाया पहरा
फिर से मेरी कविताओं का रस बदला और शृंगार सजा
फिर से गीतों में पीर ढली, फिर से ग़ज़लों में प्यार सजा
मेरे कवि पर इक लड़की का, इतना अधिकार नहीं होगा
पहले के अनुभव कहते थे, अब मुझको प्यार नहीं होगा

शायद मेरी मन-बगिया में कुछ पुष्प भाव के झरने थे
शायद मेरे काव्यांगन में कुछ अनुपम गीत उतरने थे
शायद यह फूल मुहब्बत का खिलना था और बिखरना था
शायद यह सब निर्धारित था, मिलना था और बिछड़ना था
शायद मेरे मन में अहसासों की इक खण्डित मूरत थी
शायद मुझको इस अनुभव की पहले से अधिक ज़रूरत थी
शायद मुझसे फिर कोमल भावों का सत्कार नहीं होता
सब अनुभव आधे रह जाते गर फिर से प्यार नहीं होता

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

प्रेम

प्रेम की राह में पीर के गाँव हैं
प्रेम ही जग में सबसे लुभावन हुआ
प्रेम खोया तो सावन भी पतझर बना
प्रेम पाया तो पतझर भी सावन हुआ

जब नदी कोई सागर को अर्पित हुई
हाय! अमरित-सा जल उसका खारा हुआ
सूर्य ने छल से उसका किया अपहरण
कोई बादल उसे पा आवारा हुआ
हिमशिखर में ढली, ऑंसुओं सी गली
और गंगा का जल फिर से पावन हुआ

एक अनमोल पल की पिपासा लिए
कोई साधक जगत् में विचरता रहा
घोर तप में तपी देह जर्जर हुई
मन में आशाओं का स्रोत झरता रहा
पाने वाले ने आनंद-पथ पा लिया
जग कहे- ‘साधना का समापन हुआ’

एक राधा कथा से नदारद हुई
एक मीरा अचानक हवा हो गई
सिसकियाँ उर्मिला की घुटीं मन ही मन
मंथरा जीते जी बद्दुआ हो गई
बस कथानक ने सबको अमर कर दिया
फिर न राघव हुए ना दशानन हुआ

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं

चंद सस्ती ख्वाहिशों पर सब लुटाकर मर गईं
नेकियाँ ख़ुदगर्ज़ियों के पास आकर मर गईं

जिनके दम पर ज़िन्दगी जीते रहे हम उम्र भर
अंत में वो ख्वाहिशें भी डबडबाकर मर गईं

बदनसीबी, साज़िशें, दुश्वारियाँ, मातो-शिक़स्त
जीत की चाहत के आगे कसमसाकर मर गईं

मीरो-ग़ालिब रो रहे थे रात उनकी लाश पर
चंद ग़ज़लें चुटकुलों के बीच आकर मर गईं

वो लम्हा जब झूठ की महफ़िल में सच दाखिल हुआ
साज़िशें उस एक पल में हड़बड़ा कर मर गईं

क्या इसी पल के लिए करता था गुलशन इंतज़ार
जब बहार आई तो कलियाँ खिलखिला कर मर गईं

जिन दीयों में तेल कम था, उन दीयों की रोशनी
तेज़ चमकी और पल में डगमगा कर मर गईं

दिल कहे है- प्रेम में उतरी तो मीरा जी उठीं
अक्ल बोले- बावरी थीं, दिल लगाकर मर गईं

ये ज़माने की हक़ीक़त है, बदल सकती नहीं
बिल्लियाँ शेरों को सारे गुर सिखाकर मर गईं

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

कोई गीत नहीं लिखा

तुम रूठी तो मैंने रोकर, कोई गीत नहीं लिखा
इस ग़म में दीवाना होकर, कोई गीत नहीं लिखा
तुम जब मेरे संग थी तब तक नज़्में-ग़ज़लें ख़ूब कहीं
लेकिन साथ तुम्हारा खोकर कोई गीत नहीं लिखा

ऐसा नहीं तुम्हारी मुझको याद नहीं बिल्कुल आती
मन भर-भर आता है फिर भी साँस नहीं रुकने पाती
ख़ुद से उखड़ा रहता हूँ पर जीवन चलता रहता है
शायद मैंने खण्डित की है प्रेमनगर की परिपाटी
इसीलिए तो नयन भिगोकर कोई गीत नहीं लिखा

तुम्हें बतानी थी नग्मों में प्रेम-वफ़ा की परिभाषा
और जतानी थी फिर से मिलने की अंतिम अभिलाषा
तुम्हें उलाहना देना था या ख़ुद को दोषी कहना था
और फिर ईश्वर के आगे रखनी थी कोई जिज्ञासा
मैंने अब तक आख़िर क्योंकर कोई गीत नहीं लिखा

संबंधों की पीड़ा भी है, भीतर का खालीपन भी
मुझसे घण्टों बतियाता रहता है मेरा दरपन भी
रात-रात भर भाव घुमड़ते रहते हैं मन के भीतर
नयन कोर पर हो ही जाता है आँसू का तर्पण भी
इतना सब सामान संजोकर कोई गीत नहीं लिखा

सारी दुनिया को कैसे बतलाऊंगा अपनी बातें
आकर्षण, अपनत्व, समर्पण और पीड़ा की बरसातें
जिन बातों को हम-तुम बस आँखों-आँखों में करते थे
क्या शब्दों में बंध पाएंगी वो भावों की सौगातें
इन प्रश्नों से आहत होकर कोई गीत नहीं लिखा

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

चांदनी से रात बतियाने सहेली आ गयी

चांदनी से रात बतियाने सहेली आ गयी
कुछ मुंडेरों के मुक़द्दर में चमेली आ गयी

पैर भी सुस्ता लिये, आँखों ने भी दम ले लिया
ज़िंदगी की राह में, दिल की हवेली आ गई

झाँकता है हर कोई ऐसे दिल-ए-नाशाद में
जैसे आंगन में कोई दुल्हन नवेली आ गई

बोझ कंधों का उतर कर गिर गया जाने कहाँ
जब मेरे सिर पे बुज़ुर्गों की हथेली आ गई

तीरगी का ख़ौफ़, सन्नाटे की दहशत थी मगर
इक किरण सूरज की धरती पर अकेली आ गयी

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

अनपढ़ माँ

 

चूल्हे-चौके में व्यस्त
और पाठशाला से दूर रही माँ
नहीं बता सकती
कि ”नौ-बाई-चार” की कितनी ईंटें लगेंगी
दस फीट ऊँची दीवार में
…लेकिन अच्छी तरह जानती है
कि कब, कितना प्यार ज़रूरी है
एक हँसते-खेलते परिवार में।

त्रिभुज का क्षेत्रफल
और घन का घनत्व निकालना
उसके शब्दों में ‘स्यापा’ है
…क्योंकि उसने मेरे सीने को
ऊनी धागे के फन्दों
और सिलाइयों की
मोटाई से नापा है

वह नहीं समझ सकती
कि ‘ए’ को ‘सी’ बनाने के लिए
क्या जोड़ना या घटाना होता है
…लेकिन अच्छी तरह समझती है
कि भाजी वाले से
आलू के दाम कम करवाने के लिए
कौन सा फॉर्मूला अपनाना होता है।

मुद्दतों से खाना बनाती आई माँ ने
कभी पदार्थों का तापमान नहीं मापा
तरकारी के लिए सब्ज़ियाँ नहीं तौलीं
और नाप-तौल कर ईंधन नहीं झोंका
चूल्हे या सिगड़ी में
…उसने तो केवल ख़ुश्बू सूंघकर बता दिया है
कि कितनी क़सर बाकी है
बाजरे की खिचड़ी में।

घर की कुल आमदनी के हिसाब से
उसने हर महीने राशन की लिस्ट बनाई है
ख़र्च और बचत के अनुपात निकाले हैं
रसोईघर के डिब्बों
घर की आमदनी
और पन्सारी की रेट-लिस्ट में
हमेशा सामन्जस्य बैठाया है
…लेकिन अर्थशास्त्र का एक भी सिद्धान्त
कभी उसकी समझ में नहीं आया है।

वह नहीं जानती
सुर-ताल का संगम
कर्कश, मृदु और पंचम
सरगम के सात स्वर
स्थाई और अन्तरे का अन्तर
….स्वर साधना के लिए
वह संगीत का कोई शास्त्री भी नहीं बुलाती थी
…लेकिन फिर भी मुझे
उसकी लल्ला-लल्ला लोरी सुनकर
बड़ी मीठी नींद आती थी।

नहीं मालूम उसे
कि भारत पर कब, किसने आक्रमण किया
और कैसे ज़ुल्म ढाए थे
आर्य, मुग़ल और मंगोल कौन थे,
कहाँ से आए थे?
उसने नहीं जाना
कि कौन-सी जाति
भारत में अपने साथ क्या लाई थी
लेकिन हमेशा याद रखती है
कि नागपुर वाली बुआ
हमारे यहाँ कितना ख़र्चा करके आई थी।

वह कभी नहीं समझ पाई
कि चुनाव में किस पार्टी के निशान पर
मुहर लगानी है
लेकिन इसका निर्णय हमेशा वही करती है
कि जोधपुर वाली दीदी के यहाँ
दीपावली पर कौन-सी साड़ी जानी है।

बेशक़ माँ को नहीं आता
सीधा स्वास्तिक बनाना
लेकिन स्वास्तिक को ख़ूब आता है
माँ के हाथ से बनकर
शुभ हो जाना

मेरी अनपढ़ माँ
वास्तव में अनपढ़ नहीं है
वह बातचीत के दौरान
पिताजी का चेहरा पढ़ लेती है
काल-पात्र-स्थान के अनुरूप
बात की दिशा मोड़ सकती है
झगड़े की सम्भावनाओं को भाँप कर
कोई भी बात
ख़ूबसूरत मोड़ पर लाकर छोड़ सकती है

दर्द होने पर
हल्दी के साथ दूध पिला
पूरे देह का पीड़ा को मार देती है
और नज़र लगने पर
सरसों के तेल में रूई की बाती भिगो
नज़र भी उतार देती है

अगरबत्ती की ख़ुश्बू से
सुबह-शाम सारा घर महकाती है
बिना काम किए भी
परिवार तो रात को
थक कर सो जाता है
लेकिन वो सारा दिन काम करके भी
परिवार की चिन्ता में
रात भर सो नहीं पाती है।

सच!
कोई भी माँ
अनपढ़ नहीं होती
सयानी होती है
क्योंकि ढेर सारी डिग्रियाँ बटोरने के बावजूद
बेटियों को उसी से सीखना पड़ता है
कि गृहस्थी
कैसे चलानी होती है।

© Chirag Jain : चिराग़ जैन