काँपती लौ, ये स्याही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी
© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’
काँपती लौ, ये स्याही, ये धुआँ, ये काजल
उम्र सब अपनी इन्हें गीत बनाने में कटी
कौन समझे मेरी आँखों की नमी का मतलब
ज़िन्दगी गीत थी पर जिल्द बंधाने में कटी
© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’
अब के सावन में ये शरारत मेरे साथ हुई
मेरा घर छोड़ के कुल शहर में बरसात हुई
आप मत पूछिए क्या हम पे सफ़र में गुज़री
था लुटेरों का जहाँ गाँव, वहीं रात हुई
© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’
नभ तक पसरे अंधकार में
अंधियारे के भय से आगे
आँखों में बस एक स्वप्न है
इस अभेद्य दुर्दांत तिमिर में
जिसकी किरण उजाला भर दे
वो दीपक मेरा अपना हो
निविड़ निशा का सन्नाटा हो
स्यालों के मातमी स्वरों से
अंतर्मन बैठा जाता हो
देह चीरती शीतलहर में
झींगुर का स्वर दहलाता हो
भयाक्रांत अस्तित्व सहमकर
सरीसृपों के आभासों से
सधा-बचा बढ़ता जाता हो
ऐसी कालरात्रि से बचकर
शुभ-मुहूर्त का इंगित पाकर
जो जग के जीवन को स्वर दे
वो कलरव मेरा अपना हो
भाग्य रेख जब कटी फटी हो
गृह-नक्षत्र विरुद्ध खड़े हों
कालसर्प हो, पितृदोष हो
सब कुयोग-अभिशाप दृष्ट हों
कर्म और फल की चिंता तज
विधिना के लेखे विस्मृत कर
मेरे हित सब नियम तोड़ कर
जो धरती को अम्बर कर दे
वो ईश्वर मेरा अपना हो
© Chirag Jain : चिराग़ जैन
पहले मन में पीड़ा जागी
फिर भाव जगे मन-आंगन में
जब आंगन छोटा लगा उसे
कुछ ऐसे सँवर गई पीड़ा
क़ागज़ पर उतर गई पीड़ा…
जाने-पहचाने चेहरों ने
जब बिना दोष उजियारों का
रिश्ता अंधियारों से जोड़ा
जब क़समें खाने वालों ने
अपना बतलाने वालों ने
दिल का दर्पण पल-पल तोड़ा
टूटे दिल को समझाने को
मुश्क़िल में साथ निभाने को
और छोड़ के सारे ज़माने को
हर हद से गुज़र गई पीड़ा…
ये चांद-सितारे और अम्बर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर धीरे-धीरे पहचाने
ये धन-वैभव, ये कीर्ति-शिखर
पहले अपने-से लगे मगर
फिर ये भी निकले बेगाने
फिर मन का सूनापन हरने
और सारा खालीपन भरने
ममतामई आँचल को लेकर
अन्तस् में ठहर गई पीड़ा
काग़ज़ पर उतर गई पीड़ा…
कुछ ख़्वाब पले जब आँखों में
बेगानों तक का प्यार मिला
यूँ लगा कि ये संसार मिला
जब आँसू छ्लके आँखों से
अपनों तक से प्रतिकार मिला
चुप रहने का अधिकार मिला
फिर ख़ुद में इक विश्वास मिला
कुछ होने का अहसास मिला
फिर एक खुला आकाश मिला
तारों-सी बिखर गई पीड़ा…
© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी