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लौटना पड़ेगा फिर-फिर घर

घर की देहरी पर छूट गए
संवाद याद यों आएंगे
यात्राएँ छोड़ बीच में ही
लौटना पड़ेगा फिर-फिर घर

यह आंगन धन्यवाद देकर
मन ही मन यों मुस्काएगा
यात्राएँ सभी अधूरी हैं
तू लौट यहीं फिर आएगा
ओ जाने वाले परदेसी
ये पथ तुझको भरमाएंगे
घर की यादों के जले दीप
रेती में आग लगाएंगे
छालों को छीलेंगे तेरे
सपनों के महलों के खण्डहर

ये विदा-समय की नम पलकें
हारे कंधे थपकाएंगी
गोधूलि सनी घंटियाँ तुझे
पगडंडी पर ले आएंगी
तुलसी चौरे के पास जला
दीवा सूरज बन जाएगा
तुतली बोली वाला छौना
प्राणों में हूक जगाएगा
कस्तूरी-से गंधाते पल
टेरेंगे रे हिरना अक्सर

© Dhananjaya Singh : धनंजय सिंह

 

थोड़ा-सा आसमान

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान
तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएँ
भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलांघ कर निकलना पड़े
लेकिन कोई किसी से न टकराए।

जब रहता है, कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान
तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है
वरना कितना मुश्क़िल होता है बचा पाना
अपनी कविता भर जान!

© Bhagwat Rawat : भगवत रावत