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शर्त

तुमने एक ‘लतीफ़ा’ सुनाया था
जिसे सुनकर सब हँस पड़े थे
सिर्फ़ मैं नहीं हँसा था,
क्योंकि हँसने के लिए मैं
‘लतीफ़ों’ का मोहताज नहीं हूँ।

हँसा मैं भी
मगर दो घंटे बाद,
जब हँसने का
कोई मतलब नहीं था।

मतलब था तो
सिर्फ़ इतना
कि मैं हँसा था
मगर अपनी शर्तों पर।

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

भंडार घर

पहले के गाँवों में हुआ करते थे
भंडार घर
भरे रहते थे
अन्न से, धान से कलसे
डगरे में धरे रहते थे
आलू और प्याज
गेहूं-चावल के बोरे
और भूस की ढेरी में
पकते हुए आम।

नई बहुरिया घर आती थी
तो उसके हाथों
हर बोरी, हर कलसा,
हर थाल, हर डगरा,
छुलाया जाता था
कि द्रौपदी का ये कटोरा
सदा भरा रहे।

यहाँ हमारे फ्लैट में भी है
एक स्टोर
छूती हूँ यहाँ के कोने
कलसे, थाल और डगरे
तो कई भूली चीजें
हाथ लग जाती हैं
मसलन–
बच्चों के छोटे हो गये जूते
पिछले साल की किताबें
बासी अख़बार, मैगज़ीन
पुराने लंच-बॉक्स और बस्ते

संघर्ष भरे दिनों की याद दिलाती–
फोल्डिंग चारपाई
पानी की बोतल
लोहे वाली प्रेस
चटका हुआ हेल्मेट
और खंडित हो गईं
देवी-देवताओं की मूर्तियाँ भी।

यों मेरा रोज़ का रिश्ता नहीं है स्टोर से
लेकिन मैं चाहे कहीं रहूँ
तेज़ बरसात में
सबसे पहले चिंता होती है स्टोर की
डरती हूँ कि जालीदार खिड़की से
पानी भीतर आ जाएगा
और डूब जाएंगीं
अनेक तहों में रखीं
कई ज़रूरी चीजें
जिन्हें बरसों से देखा नहीं मैंने
जिनकी याद तक नहीं मेरे ज़ेहन में
पर जो बेहद क़ीमती हैं
बूढ़े माँ-बाप की तरह।

सोचती हूँ-
कि बिखरे हुए घर की पूर्णता के लिए
भंडार-घर की तरह ही
कितना अहम है
बहुमंज़िली इमारतों की भीड़ में
छोटे-से फ्लैट का
मामूली-सा ये कोना
जो समेटता है अपने भीतर
सारे शहरी बिखराव को
घर के बड़े-बूढ़ों की तरह
जो पी लेते हैं
बहुत कुछ कड़वा, तीखा
ताकि रिश्तों में मिठास बची रहे।

© Alka Sinha : अलका सिन्हा

 

सदन की कार्यवाही

काश मेरी ज़िन्दगी
संसद की कार्यवाही होती
और सुरक्षित होता
अपने जीवन के कई हिस्सों को
जीवन की कार्यवाही से
अलग करने का हक़
मेरे पास!

तो फिर
क्या मुझ जैसा साधारण आदमी
अपनी कई परेशानियों से
चुटकियो में निज़ात न पा जाता!

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

बच्चा

अलमुनियम का वह दो डिब्बों वाला
कटोरदान
बच्चे के हाथ से छूटकर
नहीं गिरा होता सड़क पर
तो यह कैसे पता चलता
कि उनमें
चार रूखी रोटियों के साथ-साथ
प्याज़ की एक गाँठ
और दो हरी मिर्चें भी थीं

नमक शायद
रोटियों के अंदर रहा होगा
और स्वाद
किन्हीं हाथों और किन्हीं आँखों में
ज़रूर रहा होगा

बस इतनी सी थी भाषा उसकी
जो अचानक
फूटकर फैल गई थी सड़क पर

यह सोचना
बिल्क़ुल बेकार था
कि उस भाषा में
कविता की कितनी गुंजाइश थी
या यह बच्चा
कटोरदान कहाँ लिये जाता था

© Bhagwat Rawat : भगवत रावत

 

चट्टानें

चारों ओर फैली हुईं
स्थिर और कठोर चट्टानों की दुनिया के बीच
एक आदमी
झाड़ियों के सूखे डंठल बटोर कर
आग जलाता है।

चट्टानों के चेहरे तमतमा जाते हैं
आदमी उन सबसे बेख़बर
टटोलता हुआ अपने-आपको
उठता है
और उनमें किसी एक पर बैठकर
अपनी दुनिया के लिए
आटा गूंधता है।

आग तेज़ होती है
चट्टानें पहली बार अपने सामने
कुछ बनता हुआ देखती हैं ।

अंत में आदमी
उठकर चल देता है अचानक
उसी तरह बेख़बर
चट्टानें पहली बार अपने बीच से
कुछ गुज़रता हुआ
महसूस करती हैं।

© Bhagwat Rawat : भगवत रावत

 

गुलमोहर

वृक्ष ने आवेश में भर लिया
पत्तियों को
अपनी बलिष्ठ बाँहों में
बेतरह।

पत्तियाँ लजाईं,
सकुचाईं
और हो गईं –
गुलमोहर।

© Alka Sinha : अलका सिन्हा

 

एमएनसीज

वो छीन लेना चाहते हैं
हमारा जल
हमारा जंगल
हमारी ज़मीन भी।

वो छीन लेना चाहते हैं
हमारी थाली से
चुटकी भर नमक
प्याज का एक टुकड़ा
और एक अदद मिर्च भी।

…और पाट देना चाहते हैं
हमारे घरों को
टेलीविज़न, कम्प्यूटर,
रेफ्रिजिरेटर, एयर कंडिशनर,
और अपनी नैनों कारों से।

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

बीसवीं सदी में मनुष्य

आइए आपको
आगे आने वाले
उस युग में ले चलता हूँ
जिसमें मनुष्य का
पूरा विकास हो चुका है
बीमारियों और बुराइयों का
नाश हो चुका है
आदमी विवेकशील है, प्रबुध्द है
न आपसी दुश्मनी है, न युध्द है।

परिष्कृत भोजन है
छोटे से कैप्सूल में आ जाता है
पूरा शरीर में लग जाता है
बाहर कुछ नहीं आता है
न ही आने का द्वार है
सुखी संसार है
उस आने वाले युग में
आज के यानि बीसवीं सदी के बारे में
क्या विचार होगा
यही इस कविता का सार है।

बीसवीं सदी के आसपास
मनुष्य के शरीर पर उगती थी
एक प्रकार की घास
उसी की भाषा में कहें तो ‘बाल’
ये बाल ही बताते थे
उसके पिछड़ेपन का हाल
जैसे-जैसे
मनुष्य का विकास होता गया
बालों का भी नाश होता गया
लेकिन सिर पर
यानि दिमाग़ के ऊपर
तब भी सबसे अधिक बाल थे
इसका मतलब
बीसवीं सदी में लोग
बुध्दि से पिछड़े थे, कंगाल थे
कहावत थी
‘फेस इज़ द इंडेक्स ऑफ मैन’
यानि
चेहरा आदमी का आइना था
इस बात का इक ख़ास मायन था
स्त्रियाँ चेहरे से चिकनी थीं
पुरुष का चेहरा
दाढ़ी और मूँछ रूपी
बालों से घिरा था
इसका अर्थ हुआ-
स्त्री की तुलना में
वो ज्यादा जंगली था
सिरफिरा था।

यों आदमी की संगत के कारण
औरत कौन सा कम थी
औरत-औरत की दुश्मन थी
सिंगार करती थी
सिंगार के माध्यम से
एक दूसरी पर वार करती थी
आदमी का शिकार करती थी।

आदमी
गाँव और कस्बे रूपी
झुण्ड में मिलता था
पड़ोसी को देखकर जलता
किन्तु पड़ोसी की पत्नी
उसे सुहाती थी
बस, इतनी-सी इंसानियत
उसमें बाक़ी थी

भैंस थी, लाठी थी
लूट की परिपाटी थी
समाज टुकड़ों में बँटा था
धर्म और जाति के
अलग-अलग खाने थे
आपस में लड़ने के
ये सब बहाने थे

प्रदूषित जल था
जाने कैसी हवा थी
हवा में ज़हर था
ज़हर भी दवा थी।

संसार की हालत ऐसी
बच्चा पैदा होते ही
दहाड़ मार-मारकर रोता
फिर रोने का ये कार्यक्रम
जीवन भर होता

जनता नेता को रोती
नेता कुर्सी के लिए रोता
कुर्सी अपने भाग्य को रोती
एक तो उसके बनने में
किसी पेड़ की हत्या होती
दूसरे तब रोती
जब किसी नेता का भार ढोती

मनुष्य में बचपन से ही
पशुओं के लक्षण होते
बच्चे, बस्ते-नाम का बोझ
पीठ पर ढोते।

बच्चा जाति पैदा होते ही
दूध पीने पर उतारू थी
गाय भैसों की तरह
मानव मादा भी दुधारू थी

माँ से ज्यादा
माँ के दूध की वैल्यू थी
‘अपनी माँ का दूध पिया है’
यह कहते हुए
आदमी का सीना फूल जाता
लेकिन पत्नी के आ जाने पर
वो कम्बख्त
अपनी माँ को भूल जाता।

जब माँ को भूल जाता
तो उसका ध्यान
दूध से हटकर
दारू पर आता था
यानि पत्नी के आ जाने पर
उसका मन
कड़वी चीज़ों में रम पाता था।

उस युग में
शेर आदमी को खा जाता
आदमी का शेर पर वश नहीं चलता
इसलिए
बकरे और मुर्गे पर ज़ोर आज़माता
फ़र्क सिर्फ़ इतना होता
आदमी खाने से पहले
भूनता था, पकाता था
शेर को पकाना नहीं आता था
इसलिए जंगली कहलाता था

यों आदमी ने जानवर को
‘वहशी, ख़ूँखार, दरिन्दा’
जाने क्या-क्या बोला
लेकिन जानवर ने
आदमी के बारे में
कभी मुँह नहीं खोला।

आदमी को कई तरह से झेला
आदमी उसके जीवन से
ख़ूब खुलकर खेला
दूध हुआ तो उसे निचोड़ा
बोटियों की ख़ातिर
गर्दन को मरोड़ा
हड्डियों को पीसा
खाल का जूता बना
पैरों से घसीटा।

हाय राम!
जानवर से ऐसा व्यवहार
मनुष्यता को कर दिया
उसने तार-तार।

मित्रो!
कुल मिलाकर
बीसवीं सदी में
समाज की ऐसी व्यवस्था थी
मनुष्य की हालत कामचलाऊ
लेकिन
मनुष्यता की हालत ख़स्ता थी।

© Baghi Chacha : बाग़ी चाचा

 

अकाउंटिंग के अध्यापक का प्रेम पत्र

नए-नए अकाउंटिंग के प्राध्यापक
स्वयं के प्यार में हिसाब-किताब भर बैठे
और उसी से प्रभावित होकर ये ग़लती कर बैठे
कि सारा का सारा मसाला
दिल की बजाय, दिमाग़ से निकाला
और ये पत्र लिख डाला
लिखा था-
प्रिये! मैं जब भी तुमसे मिलता हूँ
“शेयर प्रीमियम” की तरह खिलता हूँ
सचमुच तुमसे मिलकर यूँ लगता है
गुलशन में नया फूल खिल गया
या यूँ कहूँ
किसी उलझे हुए सवाल की
“बैलेंस शीट” का टोटल मिल गया
मेरी जान
जब तुम शरमाती हो
मुझे “प्रोफिट एंड लॉस” के
“क्रेडिट बैलेंस” सी नज़र आती हो
तुम्हारा वो “इन्कम टैक्स ऑफिसर” भाई
जो इकतीस मार्च की तरह आता है
मुझे बिल्क़ुल नहीं भाता है
उसकी शादी करवाकर घर बसवाओ
वरना घिस-घिस कर इतना पछताएगा
एक दिन “बैड डेब्ट” हो जाएगा
और कुछ मुझे भी संभालो
“फिक्सड असेट” के तरह ज़िन्दगी में ढालो
अपने “स्क्रैप वैल्यू” के नज़दीक आते माँ-बाप को समझाओ
किसी तरह भी मुझे उनसे मिलवाओ
उन्हें कहो तुम्हें किस बात का रोना है
तुम्हारा दामाद तो खरा सोना है
और तुम्हारा पड़ोसी पहलवान
जो बेवक़्त हिनहिनाता है
उसे कहो
मुझे “लाइव स्टॉक” अकाउंट बनाना भी आता है
“हायर अकाउंटिंग” की किताब की तरह मोटी
और उसके अक्षरों की तरह काली
वो मेरी होने वाली साली
जब भी मुस्कुराती है
मुझे “रिस्की इनवेस्टमेंट” पर
“इंट्रेस्ट रेट” सी नज़र आती है
सच में प्रिये
दिल में गहराई तक उतर जाती हो
जब तुम “सस्पेंस अकाउंट” की तरह
मेरे सपनों में आती हो
ये पत्र नहीं
मेरी धड़कने तुम्हारे साथ में हैं
अब मेरे प्यार का डेबिट-क्रेडिट तुम्हारे हाथ में है
ये यादें और ख़्वाब जब मदमाते हैं
तो ज़िन्दगी के “ट्रायल बैलेंस”
बड़ी मुश्क़िल से संतुलन में आते हैं
मैं जानता हूँ
मुझसे दूर रहकर तुम्हारा दिल भी कुछ कहता है
मेरे हर आँसू का हिसाब
तुम्हारी “कैश बुक” में रहता है
और गिले-शिक़वे तो हम उस दिन मिटाएंगे
जिस दिन प्यार का
“रिकांसिलेशन स्टेटमेंट” बनाएंगे
और हाँ
तुम मुझे यूँ ही लगती हो सही
तुम्हे किसी “विण्डो ड्रेसिंग” की ज़रूरत नहीं
मुझे लगता है
तुम्हारा ज़ेह्न किसी और आशा में होगा
“ऑडिटिंग” सीख रहा हूँ
अगला ख़त और भी भाषा में होगा
मैंने “स्लिप सिस्टम” की पद्धति
दिमाग़ में भर ली है
और तुम्हारे कॉलेज टाइम में लिखे
एक सौ पच्चीस लव लेटर्स की
“ऑडिटिंग” शुरू कर दी है
अब समझी !
मैं तुम्हारी जुदाई से
“इन्सोल्वैन्सी” की तरह डरता हूँ
मेरी जान
मैं तुम्हें “बोनस शेयर” से भी ज़्यादा प्यार करता हूँ
तुम्हारी यादों में मदहोश होकर
जब भी बोर्ड पर लिखने के लिए चॉक उठाता हूँ
“लेज़र के परफ़ोर्मा” की जगह
तुम्हारी तस्वीर बना आता हूँ
मैं तुम्हारे अन्दर अब इतना खो गया हूँ
“नॉन परफोर्मिंग असेट” हो गया हूँ
अब पत्र बंद करता हूँ
कुछ ग़लत हो
तो “अपवाद के सिद्धांत” को अपनाना
कुछ नाजायज़ हो
तो “मनी मैजरमेंट” से परे समझकर भूल जाना
“कंसिसटेंसी” ही जीवन का आधार होता है
और ज़िन्दा वही रहते हैं
जिन्हें किसी से प्यार होता है

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

 

थोड़ा-सा आसमान

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान
तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएँ
भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलांघ कर निकलना पड़े
लेकिन कोई किसी से न टकराए।

जब रहता है, कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान
तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है
वरना कितना मुश्क़िल होता है बचा पाना
अपनी कविता भर जान!

© Bhagwat Rawat : भगवत रावत