बीसवीं सदी में मनुष्य

आइए आपको
आगे आने वाले
उस युग में ले चलता हूँ
जिसमें मनुष्य का
पूरा विकास हो चुका है
बीमारियों और बुराइयों का
नाश हो चुका है
आदमी विवेकशील है, प्रबुध्द है
न आपसी दुश्मनी है, न युध्द है।

परिष्कृत भोजन है
छोटे से कैप्सूल में आ जाता है
पूरा शरीर में लग जाता है
बाहर कुछ नहीं आता है
न ही आने का द्वार है
सुखी संसार है
उस आने वाले युग में
आज के यानि बीसवीं सदी के बारे में
क्या विचार होगा
यही इस कविता का सार है।

बीसवीं सदी के आसपास
मनुष्य के शरीर पर उगती थी
एक प्रकार की घास
उसी की भाषा में कहें तो ‘बाल’
ये बाल ही बताते थे
उसके पिछड़ेपन का हाल
जैसे-जैसे
मनुष्य का विकास होता गया
बालों का भी नाश होता गया
लेकिन सिर पर
यानि दिमाग़ के ऊपर
तब भी सबसे अधिक बाल थे
इसका मतलब
बीसवीं सदी में लोग
बुध्दि से पिछड़े थे, कंगाल थे
कहावत थी
‘फेस इज़ द इंडेक्स ऑफ मैन’
यानि
चेहरा आदमी का आइना था
इस बात का इक ख़ास मायन था
स्त्रियाँ चेहरे से चिकनी थीं
पुरुष का चेहरा
दाढ़ी और मूँछ रूपी
बालों से घिरा था
इसका अर्थ हुआ-
स्त्री की तुलना में
वो ज्यादा जंगली था
सिरफिरा था।

यों आदमी की संगत के कारण
औरत कौन सा कम थी
औरत-औरत की दुश्मन थी
सिंगार करती थी
सिंगार के माध्यम से
एक दूसरी पर वार करती थी
आदमी का शिकार करती थी।

आदमी
गाँव और कस्बे रूपी
झुण्ड में मिलता था
पड़ोसी को देखकर जलता
किन्तु पड़ोसी की पत्नी
उसे सुहाती थी
बस, इतनी-सी इंसानियत
उसमें बाक़ी थी

भैंस थी, लाठी थी
लूट की परिपाटी थी
समाज टुकड़ों में बँटा था
धर्म और जाति के
अलग-अलग खाने थे
आपस में लड़ने के
ये सब बहाने थे

प्रदूषित जल था
जाने कैसी हवा थी
हवा में ज़हर था
ज़हर भी दवा थी।

संसार की हालत ऐसी
बच्चा पैदा होते ही
दहाड़ मार-मारकर रोता
फिर रोने का ये कार्यक्रम
जीवन भर होता

जनता नेता को रोती
नेता कुर्सी के लिए रोता
कुर्सी अपने भाग्य को रोती
एक तो उसके बनने में
किसी पेड़ की हत्या होती
दूसरे तब रोती
जब किसी नेता का भार ढोती

मनुष्य में बचपन से ही
पशुओं के लक्षण होते
बच्चे, बस्ते-नाम का बोझ
पीठ पर ढोते।

बच्चा जाति पैदा होते ही
दूध पीने पर उतारू थी
गाय भैसों की तरह
मानव मादा भी दुधारू थी

माँ से ज्यादा
माँ के दूध की वैल्यू थी
‘अपनी माँ का दूध पिया है’
यह कहते हुए
आदमी का सीना फूल जाता
लेकिन पत्नी के आ जाने पर
वो कम्बख्त
अपनी माँ को भूल जाता।

जब माँ को भूल जाता
तो उसका ध्यान
दूध से हटकर
दारू पर आता था
यानि पत्नी के आ जाने पर
उसका मन
कड़वी चीज़ों में रम पाता था।

उस युग में
शेर आदमी को खा जाता
आदमी का शेर पर वश नहीं चलता
इसलिए
बकरे और मुर्गे पर ज़ोर आज़माता
फ़र्क सिर्फ़ इतना होता
आदमी खाने से पहले
भूनता था, पकाता था
शेर को पकाना नहीं आता था
इसलिए जंगली कहलाता था

यों आदमी ने जानवर को
‘वहशी, ख़ूँखार, दरिन्दा’
जाने क्या-क्या बोला
लेकिन जानवर ने
आदमी के बारे में
कभी मुँह नहीं खोला।

आदमी को कई तरह से झेला
आदमी उसके जीवन से
ख़ूब खुलकर खेला
दूध हुआ तो उसे निचोड़ा
बोटियों की ख़ातिर
गर्दन को मरोड़ा
हड्डियों को पीसा
खाल का जूता बना
पैरों से घसीटा।

हाय राम!
जानवर से ऐसा व्यवहार
मनुष्यता को कर दिया
उसने तार-तार।

मित्रो!
कुल मिलाकर
बीसवीं सदी में
समाज की ऐसी व्यवस्था थी
मनुष्य की हालत कामचलाऊ
लेकिन
मनुष्यता की हालत ख़स्ता थी।

© Baghi Chacha : बाग़ी चाचा