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मुक्ति

मेरी मेज़ पर रखा था
एक गुलदस्ता
एक दिन उसका किनारा
ज़रा-सा टूट गया

सामने रखे उस गुलदस्ते का
वह टूटा हुआ किनारा
मुझे चुभने लगा
वह चुभा
एक दिन
दो दिन
तीन दिन
और फ़िर मैंने हटा दिया
उस गुलदस्ते को
अपनी मेज़ से
क्योंकि मैं कभी नहीं रखता
टूटी हुई चीजें
और
अधूरे सम्बन्ध

© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’

 

समाचार

अपनी मौत पर
अफ़सोस नहीं मुझको
जो आया है
वो जाएगा
अफ़सोस फ़क़त ये है
आज के अखबार में
मेरे मरने का
समाचार नहीं है

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

कठपुतली

कठपुतली
गुस्‍से से उबली
बोली- ये धागे
क्‍यों हैं मेरे पीछे-आगे?
इन्‍हें तोड़ दो
मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ दो

सुनकर बोलीं
और-और कठपुतलियाँ
कि हाँ
बहुत दिन हुए
हमें
अपने मन के छंद छुए

मगर…
पहली कठपुतली सोचने लगी-
यह कैसी इच्‍छा
मेरे मन में जगी

© Bhawani Prasad Mishra : भवानी प्रसाद मिश्र

 

चिड़ियों को पता नहीं

चिड़ियों को पता नहीं
कि वे कितनी तेज़ी से प्रवेश कर रही हैं
कविताओं में।

इन अपने दिनों में ख़ासकर
उन्हें चहचहाना था
उड़ानें भरनी थीं
और घंटों गरदन में चोंच डाले
गुमसुम बैठकर
अपने अंडे सेने थे।

मैं देखता हूँ
कि वे अक्सर आती हैं
बेदर डरी हुईं
पंख फड़फड़ाती
आहत
या अक्सर मरी हुईं।

उन्हें नहीं पता था कि
कविताओं तक आते-आते
वे चिड़ियाँ नहीं रह जातीं
वे नहीं जानतीं कि उनके भरोसे
कितना कुछ हो पा रहा है
और उनके रहते हुए
कितना कुछ ठहरा हुआ है।

अभी जब वे अचानक उड़ेंगी
तो आसमान उतना नहीं रह जाएगा
और जब वे उतरेंगी
तो पेड़ हवा हो जाएंगे।

मैं सारी चिड़ियों को इकट्ठा करके
उनकी ही बोली में कहना चाहता हूँ
कि यह बहुत अच्छा है
कि तुम्हें कुछ नहीं पता।

तुम हमेशा की तरह
कविताओं की परवाह किए बिना उड़ो
चहचहाओ
और बेखटके
आलमारी में रखी किताबों के ऊपर
घोंसले बनाकर
अपने अंडे सेओ।

न सही कविता में
पर हर रोज़
पेड़ से उतरकर
घर में
दो-चार बार
ज़रूर आओ-जाओ।

© Bhagwat Rawat : भगवत रावत

 

इरेज़

काश मन एक मोबाइल होता
जिसमें एक ऑप्शन होता
‘इरेज़’,
फिर दुनिया के बहुत सारे लोग
अपनी कई परेशानियों से
निज़ात पा जाते

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’