Tag Archives: Bhawani Prasad Mishra Poems

मैं क्यों लिखता हूँ

मैं कोई पचास बरसों से
कविताएँ लिखता आ रहा हूँ
अब कोई पूछे मुझसे
कि क्या मिलता है तुम्हें ऐसा
कविताएँ लिखने से

जैसे अभी दो मिनट पहले
जब मैं
कविता लिखने
नहीं बैठा था

तब काग़ज़
काग़ज़ था
मैं
मैं था
और क़लम
क़लम ।

मगर जब लिखने बैठा
तो तीन नहीं रहे हम
एक हो गए

© Bhawani Prasad Mishra : भवानी प्रसाद मिश्र

 

कठपुतली

कठपुतली
गुस्‍से से उबली
बोली- ये धागे
क्‍यों हैं मेरे पीछे-आगे?
इन्‍हें तोड़ दो
मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ दो

सुनकर बोलीं
और-और कठपुतलियाँ
कि हाँ
बहुत दिन हुए
हमें
अपने मन के छंद छुए

मगर…
पहली कठपुतली सोचने लगी-
यह कैसी इच्‍छा
मेरे मन में जगी

© Bhawani Prasad Mishra : भवानी प्रसाद मिश्र

 

बूंद टपकी

बूंद टपकी एक नभ से
किसी ने झुक कर झरोखे से
कि जैसे हँस दिया हो
हँस रही-सी आँख ने जैसे
किसी को कस दिया हो
ठगा-सा कोई किसी की
आँख देखे रह गया हो
उस बहुत से रूप को
रोमांच रो के सह गया हो

बूंद टपकी एक नभ से
और जैसे पथिक छू
मुस्कान चौंके और घूमे
आँख उसकी जिस तरह
हँसती हुई-सी आँख चूमे
उस तरह मैंने उठाई आँख
बादल फट गया था
चंद्र पर आता हुआ-सा
अभ्र थोड़ा हट गया था

बूँद टपकी एक नभ से
ये कि जैसे आँख मिलते ही
झरोखा बंद हो ले
और नूपुर ध्वनि झमक कर
जिस तरह द्रुत छंद हो ले
उस तरह
बादल सिमट कर
और पानी के हज़ारों बूंद
तब आएँ अचानक

© Bhawani Prasad Mishra : भवानी प्रसाद मिश्र

 

गीत फ़रोश

जी हाँ हुज़ूर
मैं गीत बेचता हूँ
मैं तरह-तरह के
गीत बेचता हूँ
मैं क़िस्म-क़िस्म के
गीत बेचता हूँ

जी, माल देखिए दाम बताऊंगा
बेकाम नहीं है, काम बताऊंगा
कुछ गीत लिखे हैं मस्ती में मैंने
कुछ गीत लिखे हैं पस्ती में मैंने
यह गीत, सख़्त सर-दर्द भुलाएगा
यह गीत पिया को पास बुलाएगा
जी, पहले कुछ दिन शर्म लगी मुझको
पर पीछे-पीछे अक़्ल जगी मुझको
जी, लोगों ने तो बेच दिए ईमान
जी, आप न हों सुन कर ज़्यादा हैरान
मैं सोच-समझकर आख़िर
अपने गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुज़ूर
मैं गीत बेचता हूँ

यह गीत सुबह का है, गा कर देखें
यह गीत ग़ज़ब का है, ढहा कर देखें
यह गीत ज़रा सूने में लिखा था
यह गीत वहाँ पूने में लिखा था
यह गीत पहाड़ी पर चढ़ जाता है
यह गीत बढ़ाये से बढ़ जाता है
यह गीत भूख और प्यास भगाता है
जी, यह मसान में भूख जगाता है
यह गीत भुवाली की है हवा हुज़ूर
यह गीत तपेदिक की है दवा हुज़ूर
मैं सीधे-सादे और अटपटे
गीत बेचता हूँ
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ

जी, और गीत भी हैं, दिखलाता हूँ
जी, सुनना चाहें आप, तो गाता हूँ
जी, छंद और बे-छंद पसंद करें–
जी, अमर गीत और वे, जो तुरत मरें
न, बुरा मानने की इसमें क्या बात
मैं पास रखे हूँ क़लम और दवात
इनमें से भाए नहीं, नए लिख दूँ
इन दिनों का दुहरा है कवि-धंधा
हैं दोनों चीज़े व्यस्त; क़लम, कंधा
कुछ घंटे लिखने के, कुछ फेरी के
जी, दाम नहीं लूंगा इस देरी के
मैं नए-पुराने सभी तरह के
गीत बेचता हूँ
जी हाँ, हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ

जी गीत जनम का लिखूँ, मरण का लिखूँ
जी, गीत जीत का लिखूँ, शरन का लिखूँ
यह गीत रेशमी है, यह खादी का
यह गीत पित्त का है, यह बादी का
कुछ और डिज़ाइन भी हैं, ये इल्मी–
यह लीजे चलती चीज़ नई, फ़िल्मी
यह सोच-सोच कर मर जाने का गीत
यह दुकान से घर जाने का गीत
जी नहीं दिल्लगी की इसमें क्या बात
मैं लिखता ही तो रहता हूँ दिन-रात
तो तरह-तरह के बन जाते हैं गीत
जी रूठ-रुठ कर मन जाते हैं गीत
जी बहुत ढेर लग गया हटाता हूँ
गाहक की मर्ज़ी– अच्छा, जाता हूँ
मैं बिल्क़ुल अंतिम और दिखाता हूँ–
या भीतर जा कर पूछ आइए, आप
है गीत बेचना वैसे बिल्क़ुल पाप
क्या करूँ मगर लाचार हार कर
गीत बेचता हँ
जी हाँ हुज़ूर, मैं गीत बेचता हूँ

© Bhawani Prasad Mishra : भवानी प्रसाद मिश्र