ना ही मंज़िल, रास्ता कोई नहीं
सच है फिर मेरा ख़ुदा कोई नहीं
है बड़ा ये गाँव भी, वो गाँव भी
तीन रंगों से बड़ा कोई नहीं
सब गले का हार बन बैठे मगर
हाथ की लाठी बना कोई नहीं
ज़िन्दगी से दूरियाँ सिमटी ज़रूर
मौत से भी फ़ासला कोई नहीं
कुछ न कुछ होने का सबको इल्म है
इस शहर में सिरफिरा कोई नहीं
ना ही आँसू, दर्द है, ना बेबसी
ज़िन्दगी में अब मज़ा कोई नहीं
उसको ‘अद्भुत’ सिर्फ़ सच से प्यार है
उसके ज़ख़्मों की दवा कोई नहीं
© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’