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कोई छू ले मन!

काश!
कोई छू ले मन
देह छुए बिना!

….मन,
जो दबा है कहीं
देह की
परतों के नीचे
कोई हो,
जो जादू की छड़ी से
छू ले मन को
और जाग उठे मन
सपनों की
राजकुमारी की तरह

बस!
फिर यहीं
ख़त्म हो जाए कहानी।

जाना न पड़े
राजकुमारी को,
जादू की छड़ी वाले
राजकुमार के साथ!

बस
मन जागे
और बना ले ख़ुद
अपना रास्ता…
अपने पंख….
अपना आकाश….!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

मैं तब से जानता हूँ

दर्पण में जब वो हर दिन, ख़ुद को नया-नया सा
अचरज से ताकती थी, मैं तब से जानता हूँ
सीधी सी बात पर भी, सीधे सहज ही उसने
मुझसे न बात की थी, मैं तब से जानता हूँ

जंगल में एक दानव, परियों को बांधता जब
करती थी प्रार्थना वो, युवराज आओ भी अब
किस्से-कहानियों में, इक चांद बैठी बुढ़िया
जब सूत कातती थी, मैं तब से जानता हूँ

चिट्ठाए बालों वाले सर को झुकाए नीचे
आँखों पे आए लट फिर, फिर फेंकती वो पीछे
आंगन में अपने घर के, लू की भरी दुपहरी
उपले वो पाथती थी, मैं तब से जानता हूँ

आँखों में मोटे-मोटे, सपनों की छोटी दुनिया
गोदी लिए वो फिरती, भाभी की नन्हीं मुनिया
मेरा ध्यान खींचने को, उसे डाँटकर रुलाती
और फिर दुलारती थी, मैं तब से जानता हूँ

प्रेम को ‘परेम’ लिखती, दिन को वो ‘दीन’ लिखती
जीना हुआ है ‘मुस्किल’, अब ‘तूम बीन’ लिखती
अशुद्धि में व्याकरण की, वो शुद्ध भाव मन के
कहते थे आपबीती, मैं तब से जानता हूँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा