मेरा गाँव गरीब है

नगर-नगर बढ़ रही अमीरी, मेरा गाँव गरीब है ! अपना गाँव गरीब है, सबका गाँव गरीब है ! यहाँ चेतना दफन हो गई चिन्ता के शमशान में, गलियारों में बचपन कटता, तरूणाई सुनसान में; अंधकार का राज यहाँ है, सौ-सौ कोस प्रकाश में, आग लगी खेतों में, पानी बरस रहा खलिहान में; जन-हित सारा सौंप दिया है दलपति के अधिकार में, “हलपति“ की अब कौन सुनेगा, दिल्ली के अरबार में, इससे बढ़कर प्रजातंत्र का हो सकता अपमान क्या, “स्वामी“ पैदल मारे फिरते, “सेवक“ चलते कार में ? बरबादी का अद्भुत कारण, आबादी इंसान की, कैसी दुर्गति हुई अमर बापू कि हिंदुस्तान की ? अभिशापित मानवता श्रम के मुँह की ओर निहारती, वरदानों के भंडारी को, चिंता है श्रम-दान की; ‘कुछ न करे सो बड़ा आदमी‘-यह सिद्धांत अजीब है ! नगर-नगर बढ़ रही अमीरी, मेरा गाँव गरीब है ! गाँव-गाँव में बिजली कर दी, खेत-खेत में नीर है, फिर भी मूढ किसान आज का, नाहक हुआ अधीर है; दिन-पर-दिन बढ़ते जाते हैं उत्पादन के आँकड़े, सेवा करना नहीं किसी के बाबा की जागीर है; धान उगाओ वैसे, जैसे बोते है जापान में, मेहनत ऐसी करो कि जैसी है रूसी-मैदान में; दिया तले है अगर अँधेरा, इसकी चर्चा व्यर्थ है, नाम हमारा पूछो, अमरीका या इंगलिस्तान में; लोग कहा करते हैं-‘यह तो आज़ादी है नाम की,‘ क्योंकि सुबह के भूले को भी खबर न आती शाम की; रमते फिरे विनोबा भावे, टंडन जी बैठे रहें, राज-भवन में करते हैं हम बातें सेवा ग्राम की; स्वतंत्रता के दाताओं से मिली यही तहजीब है ! नगर-नगर बढ़ रही अमीरी, मेरा गाँव गरीब है ! विधि का कौतुक, कलाकार को तन दे दिया किसान का, और साथ ही साथ दे दिया मन सम्राट् महान का; कानूनों के लिए न्याय है सत्य शपथ के वास्ते, विध्वंसों के साथ कर लिया समझौता निर्माण का; ‘जोरावर‘ जाटव के घर में, बीमारी घर कर गई, कल ही उसकी सुघड़-पतोहू, तड़प-तड़प का मर गई; संयत होकर कहता हूँ मैं, इसे न लें आवेश में, “बिना दवा के मरी अभागिन “धन्वन्तरि“ के देश में“; जब तक नंगे बदन “बिहारी“, या “गोपी“ मुहताज है, तबतक कोई कैसे कह दे, ‘सचमुच हुआ सुराज है?; पर, निराशा होने की कोई बात नहीं है साथियों ! सदा नहीं रह सकती ऐसी हालत, जैसी आज है; क्रान्ति-पर्व के उद्घाटन का उत्सव बहुत करीब है ! नगर-नगर बढ़ रही अमीरी, मेरा गाँव गरीब है ! © Balbir Singh Rang : बलबीर सिंह ‘रंग’