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कवि

एक विचार
बीज रूप में
गिरा उस कोख में
गर्भ ठहरा
मथती रही अभिव्यक्ति
उसे जन्म लेने के लिए।
न शब्द था संग
न अर्थ थे
थे केवल कोरे विचार
बिलख रही कोख में
बन्धया अभिव्यक्ति
अर्थ पाने के लिए।
गर्भवती माँ की पीड़ा
आज समझ पाया था
एक गर्भ धारक कवि…!

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

Sandhya Garg : संध्या गर्ग

नाम : संध्या गर्ग
जन्म : 31 जुलाई 1966 (दिल्ली)
शिक्षा : पीएच डी (हिंदी साहित्य)

प्रकाशन
अपना-अपना सच; शिल्पायन प्रकाशन
नारी विमर्श : विविध आयाम; पाँखी प्रकाशन
मीडिया और साहित्य : सामाजिक सरोकार; पाँखी प्रकाशन
अभिव्यक्ति का नया माध्यम : ब्लॉग; पाँखी प्रकाशन

निवास : दिल्ली

31 जुलाई 1966 को दिल्ली में जन्मी संध्या गर्ग मूलतः नारी मन की उन संवेदनाओं को अपनी रचनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करती हैं जो भारत जैसे देश की प्रत्येक कामकाजी महिला के मन में कुलांचें भरती है। संध्या जी की रचनाओं में नारीमुक्ति की नारेबज़ी तो नहीं है, लेकिन संबंधों और भौतिक जगत् के द्वंद्व में फँसी
नारी की पीड़ा अवश्य है। बेहद सादगी से आम भारतीया की ज़ुबान में लिखी गई ये रचनाएँ कहीं न कहीं आत्मकथ्य सी जान पड़ती हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्राध्यापिका के पद पर कार्यरत संध्या जी आगामी पीड़ी की नारी में हो रहे परिवर्तन को भी उतनी ही ख़ूबसूरती से बयान करती हैं, जितनी अपनी माँ और दादी के
मनोभावों को। भौतिकता और संवेदना के बीच की खींचतान आपकी रचनाओं में साफ़ दिखाई देती है।
आपने अज्ञेय पर शोध किया है और तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आपके लेख, कविता आदि प्रकाशित हो रहे हैं।
वरिष्ठ कवि राजगोपाल सिंह ने संध्या जी के काव्य संग्रह ‘अपना-अपना सच’ की भूमिका में लिखा है- “संध्या जी ने अपने मन के संवेदनात्मक लम्हों का जो मनोवैज्ञानिक विश्लेषण किया है, वह सराहनीय तो है ही, साथ ही अत्यंत दुरूह भी!

कवयित्री मन की महीन परतों में छिपे अहसासात की बारीक़ीयों को इतनी बेबाक़ी से बयान करती है, कि पाठकों के मन में सिहरन सी दौड़ जाती है। काश! कोई छू ले मन, देह छुए बिना…’ -मात्र एक पंक्ति में ही इस भौतिक युग की भोगवादी संस्कृति को नकारने का साहस बड़े-बड़े नामवर लेखक भी नहीं जुटा पाते। हाँ,
बोल्डनेस के नाम पर अनेक लेखिकाओं ने जो ‘साहित्य’ रचा है, वह और बात है।

डॉ. संध्या गर्ग की रचनाएँ, मात्र रचनाएँ न होकर, अनुभवों की सतत् पाठशाला से प्राप्त गहन अनुभूतियाँ जान पड़ती हैं। उनकी अनेक रचनाओं में नारी के सहज विद्रोह की झलक है।”

 

 

खग उड़ते रहना जीवन भर

खग! उड़ते रहना जीवन भर!
भूल गया है तू अपना पथ
और नहीं पंखों में भी गति
किंतु लौटना पीछे पथ पर, अरे मौत से भी है बदतर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

मत डर प्रलय-झकोरों से तू
बढ़ आशा-हलकोरों से तू
क्षण में यह अरि-दल मिट जाएगा तेरे पंखों से पिसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

यदि तू लौट पड़ेगा थक कर
अंधड़ काल-बवंडर से डर
प्यार तुझे करने वाले ही, देखेंगे तुझको हँस-हँसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

और मिट गया चलते-चलते
मंज़िल-पथ तय करते-करते
तेरी ख़ाक़ चढ़ाएगा जग उन्नत भाल और आँखों पर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

 

अश्वत्थामा

किंवदंती है कि अश्वत्थामा अमर है। छल से उसने द्रौपदी के पाँच नन्हे-निरीह शिशुओं का वध किया तो पाण्डवों ने दण्ड स्वरूप उसकी मस्तक मणि को निकाल लिया। मर वह सकता नहीं था।

कहते हैं आज भी कमण्डल में रखे लेप से उस अगम घाव को भरता इधर-उधर भटकता रहता है। कुछ का कहना है कि उन्होंने देखा है, उनसे मिला है।

मुझे-
अमरता को मेरी
शापित करने से पूर्व
-बताया जाए
कब किस दुर्योधन से-
किस पांचाली के निरीह शिशुओं का
मैंने रक्त बहा
-मित्रता निभाई?
मेरे कारण
बोलो
कब, किस धर्मराज का गला अंगूठा?

फिर मुझको क्यों दिया जा रहा
यह कठोर दुस्सह दण्ड?
न छीनो
हाय! न छीनो
मेरी मस्तक मणि को!
यह तो ज्ञात तुम्हें भी है कि
मैं मरने वालों में नहीं

मगर
यह घाव अगम
क्या कभी भरेगा?
हो पाएगा रिक्त कमण्डल
कभी लेप से?
छिन दो छिन को ही सही
पड़ेगा चैन कभी पीड़ा को?

या मैं युगों-युगों तक
सारे जग से आँख चुराए
पर्वत-पर्वत
घाटी-घाटी
यूँ ही भ्रमता फिरूँ
झल्लाता!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

 

मैं शायद अब नहीं मिलूँगा

मेरे गीत मिलेंगे तुमको, मैं शायद अब नहीं मिलूँगा I

रंग बिरंगे फूल मिलेंगे, फूलों पर तितलियां मिलेंगी,
तितली के पंखों को छूना,छूकर अपने हाथ देखना,
हाथों पर कुछ रंग दिखेंगे,शायद उन्हें सहेज सको तुम
उन रंगों में तुम्हे मिलूंगा जी भर अपने हाथ देखना,
कई अतीत मिलेंगे तुमको मैं शायद अब नहीं मिलूँगा।

मेरे जाते ही कुछ तारे , बस अंगारे बन जायेंगे
तुम्हें लगेगा आसमान में ,कुछ हलचल है बारिश होगी
चांद कई टुकड़ों में होगा, तुम्हे लगेगा कुछ साजिश है
आंख तुम्हारी गीली होगी और न कोई साजिश होगी
सब विपरीत मिलेंगे तुमको मैं शायद अब नहीं मिलूँगा।

साथ तुम्हारे यादें होंगी, पल पल साथ निभाने वाली
दिन का सफर साथ करने को सूरज भी तैयार मिलेगा
जिस दिन मुझे भूल जाओगे तुम दुनिया को प्यार करोगे
तब ही तुम को दुनियाभर से दुनियाभर का प्यार मिलेगा,
सारे मीत मिलेंगे तुमको मैं शायद अब नहीं मिलूँगा।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

पथिक!

पथिक! तुम्हारे पथ में कोई
दृश्य अनूठा आया होगा
धूली के कण-कण ने रह-रह
गीत अनूठा गाया होगा

कान तुम्हारे पास नहीं थे
पंछी गण की कलकल ध्वनि ने
उन्हें चुराया उन्हें लुभाया
सुख संवाद सुनाया होगा

ललित लताओं की कलियों में
बंदी थी वे चल ताराएँ
दीन-हीन जगती का हामी
सपने में तरसाया होगा

पैर तुम्हारे दुरभिमान से
रोंद रहे थे दीन कणों को
हो रहा था भू में कंपन
जगती को ठुकराया होगा

कोमल पावन हाथ तुम्हारे
कैसे उन नीचों को छूते
पाद तलों से घिसते-घिसते
जिसने जीवन पाया होगा

स्पंदन हीन दृश्य में शोणित
संचालन का वेग कहाँ था
मानवता-दानवता के विच
इतना अंतर पाया होगा

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

प्रामिथस

प्रामिथस स्वर्ग से ज्ञान की आग चुरा लाया था। दण्ड स्वरूप स्वर्ग के मालिक ज्रियस ने उसे एक चट्टान से बंधवा दिय। हर सुबह आसमान से एक बाज़ उतरता और प्रामिथस के जिगर को नोच-नोच कर खाता। वर्षों उसे यह दण्ड दिया गया। मिथक के अनुसार कालान्तर में हरक्युलिस के हाथों वह इस दुधर्ष दण्ड से मुक्त हो पाया।

ओ रे ओ!
मेरे जग के शासक कठोर!
स्वीकारता हूँ
मैं लुक-छिप
तेरा मर्म चुरा लाया था-नीचे
यह अंगारा
आपेक्षित था
भोली और निरीह
भटकती
ठोकर खा खा गिरती-उठती
तेरी रौरव क्रूर यातना की शिकार
मेरी प्यारी दुनिया कोऋ
आवश्यक था
मैं कर गुज़रूँ
यह तुझको जो आज-
ठीक ही
-लगता है
मेरा संगीन ज़ुर्म
अक्षम्य पाप!

उफ रे तेरा भीषण प्रकोप!
आलोक मुखर जागृति हमारी
हम दुनियादारों की
केवल इसीलिए क्या
फौलादी ज़ंजीरों में जकड़ा तन तूने
चट्टानों के साथ
बांध रखा है?
लेकिन
एक मेरा मन भी है पागल!
उसको बांधे तो मैं जानूँ

यह ज़ालिम ख़ुंखार बाज़
हर रोज़ पठाया तेरा
सूने में से तैर आता है
मेरा जिगर नोच खाने को…

खा ले
नित्य नया निर्माण
यहाँ भी
कभी न रुक पाएगा!
बतला
क्या ऐसा भी हुआ
कि तेरा तातारी यह
कभी लौटा पहुँचा होवे अतृप्त?
नहीं ना!
पर तू दिलवालों को भी पहचाने
तब तो!

विश्व नियंता सही
मगर तू हृदयहीन है!

जाने भी दे
क्या रखा है
इस थोथे प्रभाव हीन रोष में?
हम
और तुझ से
अब भी हों भयभीत?
नहीं
बस बहुत हो चुकाऋ
तनी-तनी ये भौहें
चढ़ा-चढ़ा सा चेहरा
यह मुद्रा विद्रूप
हँसी आती है सचमुच!

देख
आज तक जिन्हें
बहुत बहकाया
भरमाया, भटकाया
और सताया तूने

उनके संग रुपहली
और धुपहली
और सुनहली
ऊषा फागुन खेल रही है!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

महाकाव्य

रामायण-
कहानी है भले मानुषों की
इसका तो रावण तक
ख़ासा मर्यादित है

पात्र हैं महाभारत के
एक से बढ़ कर एक
लम्पट शान्तनु
कुण्ठाओं का गट्ठड़ भीष्म
भाड़े का टट्टू द्रोण
और निरीह शिशुओं का हत्यारा
उसका कुलदीपक,
दूरदर्शी संजय
अन्धा धृतराष्ट्र
फूट चुकी थीं जिसकी
हिये की भी!

गान्धारी
जिसकी आँखों पर
वाकई पट्टी बंधी थी
कुँआरी माँ कुन्ती
पाँच भाइयों की कॉमन प्रॉपर्टी पांचाली
सत्ता के नशे में चूर दुर्योधन
और उसका महा उस्ताद मामा
मुँह की खाने वाला दानवीर
बिना सोचे-समझे
चक्रव्यूह में कूद जाने वाला अभिमन्यु
धर्मी-कर्मी युधिष्ठिर
पहलवान भीम
नपुंसक धनुर्धारी
और उसकी गाड़ी खींच ले जाने वाला
छलिया कृष्ण
जिसे भगवान मान लेने में ही ख़ैर
लड़ाई में खेत हुए कौरव
जीत के बाद भी
गल-गल मरने वाले पाण्डव
ये सभी
मानो चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हों-
”हम आज भी हैं
महाभारत कभी ख़त्म नहीं होता…”

© Jagdish Savita : जगदीश सविता