नाम : भवानी प्रसाद मिश्र
नाम : भवानी प्रसाद मिश्र
तूफ़ानी लहरें हों
अम्बर के पहरे हों
पुरवा के दामन पर दाग़ बहुत गहरे हों
सागर के माँझी मत मन को तू हारना
जीवन के क्रम में जो खोया है, पाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है
राजवंश रूठे तो
राजमुकुट टूटे तो
सीतापति-राघव से राजमहल छूटे तो
आशा मत हार, पार सागर के एक बार
पत्थर में प्राण फूँक, सेतु फिर बनाना है
पतझर का मतलब है फिर बसंत आना है
घर भर चाहे छोड़े
सूरज भी मुँह मोड़े
विदुर रहे मौन, छिने राज्य, स्वर्णरथ, घोड़े
माँ का बस प्यार, सार गीता का साथ रहे
पंचतत्व सौ पर है भारी, बतलाना है
जीवन का राजसूय यज्ञ फिर कराना है
पतझर का मतलब है, फिर बसंत आना है
© Kumar Vishwas : कुमार विश्वास
अनर्गल बताकर मेरे प्रश्नों को
अक्सर कह देते हैं लोग
कि महज पागलपन हैं
मेरे ये प्रश्न।
क्योंकि अक्सर सोचती हूँ मैं
कि कैसा लगता होगा रोटी को
जब कोई
चबा जाता होगा उसे
आड़ा-तिरछा तोड़कर
कैसे छटपटाती होगी
सफेद साँचे में ढली सिगरेट
जब उड़ा देता होगा कोई
उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को
धुएँ के साथ
और फिर होठों से हटा
पैरों तले कुचलकर
बढ़ जाता होगा आगे
….हम्मम!
शायद
पागल ही हो गई हूँ मैं।
© Sandhya Garg : संध्या गर्ग
बहुत दिनों के बाद खिड़कियाँ खोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
जड़े हुए थे ताले सारे कमरों में
धूल भरे थे आले सारे कमरों में
उलझन और तनावों के रेशों वाले
पुरे हुए थे जले सारे कमरों में
बहुत दिनों के बाद साँकलें डोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
एक थकन-सी थी नव भाव तरंगों में
मौन उदासी थी वाचाल उमंगों में
लेकिन आज समर्पण की भाषा वाले
मोहक-मोहक, प्यारे-प्यारे रंगों में
बहुत दिनों के बाद ख़ुशबुएँ घोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
पतझर ही पतझर था मन के मधुबन में
गहरा सन्नाटा-सा था अंतर्मन में
लेकिन अब गीतों की स्वच्छ मुंडेरी पर
चिंतन की छत पर, भावों के आँगन में
बहुत दिनों के बाद चिरैया बोली हैं
ओ वासंती पवन हमारे घर आना!
© Kunwar Bechain : कुँवर बेचैन
अब की बार
निशाने पर थे तथागत!
पूरा प्रबन्ध काव्य रचा गया
सशक्त और छन्दोबद्ध भाषा में
सिद्ध कर दिया
कि भटक गया था वह
बुद्ध हो कर भी रहा अधूरा
सम्पूर्ण थी केवल यशोधरा
अपने दुधमुँहे के साथ!
© Jagdish Savita : जगदीश सविता
नाम : अम्बरीष श्रीवास्तव
नाम : चरणजीत चरण
जन्म : 13 जून 1975
शिक्षा : स्नातकोत्तर (हिंदी तथा राजनीति शास्त्र)
प्रकाशन
सरगोशियाँ; पाँखी प्रकाशन
हसरतों के आईने; पाँखी प्रकाशन
निवास :ग्रेटर नोएडा
हिंदी काव्य मंच के भविष्य का चेहरा जिन चंद रचनाकारों से मिलकर तैयार होता है, उनमें से चरणजीत एक अहम् नाम है। देश की राजधानी दिल्ली से सटे नोएडा के छोटे से गाँव रन्हेरा में जन्मे चरणजीत हिंदी तथा राजनीति शास्त्र विषयों में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त कर चुके हैं। इसके अतिरिक्त उन्होंने एलएलबी की पढ़ाई भी
की। वर्ष 2009 में एन चन्द्रा द्वारा निर्मित फिल्म ‘ये मेरा इंडिया’ और 2011 में संजय लीला भंसाली की फिल्म ‘माई फ्रैंड पिंटो’ में भी चरण ने गीत लिखे हैं। वर्तमान में चरणजीत उत्तर प्रदेश सरकार में अध्यापन कार्य से जुड़े हैं।
चरणजीत ‘चरण’ ग़ज़ल और छंदबद्ध कविता के ऐसे माहिर हस्ताक्षर हैं, जिन्हें सुनना स्वयं में एक अनोखा अहसास है। जब वे मंच पर छंद पढ़ रहे होते हैं तो प्रवाह का एक ऐसा समा बंधता है कि पूरे वातावरण में घनाक्षरी गूंजने लगता है। उनकी कविता में वर्तमान परिप्रेक्ष्य की विडंबनाओं पर तीखा कटाक्ष तो है ही, साथ ही
साथ सांस्कृतिक अवमूल्यन के प्रति एक गहरी चिंता भी है। वे सशक्त रूप में अपने गीतों के माध्यम से रूढ़ियों पर प्रहार भी करना जानते हैं और शालीनता के साथ गंभीर मुद्दों पर प्रश्न भी उठा सकते हैं।
यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम
ड्योढी पर पहले दीप जलाने दो मुझको
तुलसी जी की आरती सजाने दो मुझको
मंदिर के घंटे, शंख और घड़ियाल बजे
पूजा की सांझ-संझौती गाने दो मुझको
उगने तो दो पहले उत्तर में ध्रुवतारा
पथ के पीपल पर कर आने दो उजियारा
पगडंडी पर जल-फूल-दीप धर आने दो
चरणामृत जाकर ठाकुर जी का लाने दो
यह डूबी-डूबी सांझ, उदासी का आलम
मैं बहुत अनमनी, चले नहीं जाना बालम
यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम
बेले की पहले ये कलियाँ खिल जाने दो
कल का उत्तर पहले इन से मिल जाने दो
तुम क्या जानो यह किन प्रश्नों की गाँठ पड़ी
रजनीगंधा से ज्वार-सुरभि को आने दो
इस नीम ओट से ऊपर उठने दो चन्दा
घर के आँगन में तनिक रोशनी आने दो
कर लेने दो तुम मुझको बंद कपाट ज़रा
कमरे के दीपक को पहले सो जाने दो
यह काली-काली रात, बेबसी का आलम
मैं डरी-डरी सी, चले नहीं जाना बालम
यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम
चुप रहो ज़रा सपना पूरा हो जाने दो
घर की मैना को ज़रा प्रभाती गाने दो
खामोश धरा, आकाश, दिशायें सोयीं हैं
तुम क्या जानो क्या सोच रात भर रोयीं हैं
ये फूल सेज के चरणों पर धर देने दो
मुझको आँचल में हरसिंगार भर लेने दो
मिटने दो आँखों के आगे का अंधियारा
पथ पर पूरा-पूरा प्रकाश हो लेने दो
यह ठंडी-ठंडी रात, उनींदा सा आलम
मैं नींद भरी सी, चले नहीं जाना बालम
© Sarveshwar Dayal Saxena : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना
हाँ!
हार गई हूँ मैं
क्योंकि मैंने
सम्बन्धों को जिया
और तुमने
उनसे छल किया,
केवल छल।
हाँ!
हार गई मैं
क्योंकि
सत्य ही रहा
मेरा आधार
और तुमने
हमेशा झूठ से करना चाहा
जीवन का शृंगार।
क्योंकि
मैंने हमेशा
प्रयास किया
कुछ मूल्यों को
बचाने का
और तुमने
ख़रीद लिया
उन्हें भी मूल्य देकर!
हाँ!
सबने यही जाना
कि जीत गए हो तुम
पर उस हार के
गहन एकाकी क्षणों में भी
मैंने
नहीं चाहा कभी
कि ‘मैं’
‘तुम’ हो जाऊँ
….और यही
मेरी सबसे बड़ी जीत है।
© Sandhya Garg : संध्या गर्ग
मेरे भारत की आज़ादी, जिनकी बेमोल निशानी है
जो सींच गए ख़ूँ से धरती, इक उनकी अमर कहानी है
वो स्वतंत्रता के अग्रदूत, बन दीप सहारा देते थे
ख़ुद अपने घर को जला-जला, माँ को उजियारा देते थे
उनके शोणित की बूंद-बूंद, इस धरती पर बलिहारी थी
हर तूफ़ानी ताकत उनके, पौरुष के आगे हारी थी
माँ की ख़ातिर लड़ते-लड़ते, जब उनकी साँसें सोईं थी
चूमा था फाँसी का फंदा, तब मृत्यु बिलखकर रोई थी
ना रोक सके अंग्रेज कभी, आंधी उस वीर जवानी की
है कौन क़लम जो लिख सकती, गाथा उनकी क़ुर्बानी की
पर आज सिसकती भारत माँ, नेताओं के देखे लक्षण
जिसकी छाती से दूध पिया, वो उसका तन करते भक्षण
जब जनता बिलख रही होती, ये चादर ताने सोते हैं
फिर निकल रात के साए में, ये ख़ूनी ख़ंजर बोते हैं
अब कौन बचाए फूलों को, गुलशन को माली लूट रहा
रिश्वत लेते जिसको पकड़ा, वो रिश्वत देकर छूट रहा
डाकू भी अब लड़कर चुनाव, संसद तक में आ जाते हैं
हर मर्यादा को छिन्न-भिन्न, कुछ मिनटों में कर जाते हैं
यह राष्ट्र अटल, रवि-सा उज्ज्वल, तेजोमय, सारा विश्व कहे
पर इसको सत्ता के दलाल, तम के हाथों में बेच रहे
ये भला देश का करते हैं, तो सिर्फ़ काग़ज़ी कामों में
भूखे पेटों को अन्न नहीं ये सड़ा रहे गोदामों में
अपनी काली करतूतों से, बेइज़्ज़त देश कराया है
मेरे इस प्यारे भारत का, दुनिया में शीश झुकाया है
पूछो उनसे जाकर क्यों है, हर द्वार-द्वार पर दानवता
निष्कंटक घूमें हत्यारे, है ज़ार-ज़ार क्यों मानवता
ख़ुद अपने ही दुष्कर्मों पर, घड़ियाली आँसू टपकाते
ये अमर शहीदों को भी अब, संसद में गाली दे जाते
खा गए देश को लूट-लूट, भर लिया जेब में लोकतंत्र
इन भ्रष्टाचारी दुष्टों का, है पाप यज्ञ और लूट मंत्र
गांधी, सुभाष, नेहरू, पटेल, देखो छाई ये वीरानी
अशफ़ाक़, भगत, बिस्मिल तुमको, फिर याद करें हिन्दुस्तानी
है कहाँ वीर आज़ाद, और वो ख़ुदीराम सा बलिदानी
जब लाल बहादुर याद करूँ, आँखों में भर आता पानी
जब नमन शहीदों को करता, तब रक्त हिलोरें लेता है
भारत माँ की पीड़ा का स्वर, फिर आज चुनौती देता है
अब निर्णय बहुत लाज़मी है, मत शब्दों में धिक्कारो
सारे भ्रष्टों को चुन-चुन कर, चौराहों पर गोली मारो
हो अपने हाथों परिवर्तन, तन में शोणित का ज्वार उठे
विप्लव का फिर हो शंखनाद, अगणित योद्धा ललकार उठें
मैं खड़ा विश्वगुरु की रज पर, पीड़ा को छंद बनाता हूँ
यह परिवर्तन का क्रांति गीत, माँ का चारण बन गाता हूँ
© Arun Mittal Adbhut : अरुण मित्तल ‘अद्भुत’