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भूख के अहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

भूख के अहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक़ के जल्वों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिक़न तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो

Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

Ameer Khusro : अमीर ख़ुसरो


नाम : अबुल हसन यमीनुदीन खुसरो
जन्म : 1253; बदायूँ

निधन : 1325


1253 में उत्तर प्रदेश के बदायूँ में जन्मे अमीर ख़ुसरो के पिता अमीर सैफ़ुद्दीन अफ़गानिस्तान के बल्ख़ नामक स्थान से आए थे। हिंदी के इस प्रथम कवि ने सात वर्ष की छोटी सी आयु में पिता को खो दिया और अपनी माँ के साथ दिल्ली (अपनी ननिहाल) चले आए। सन् 1271 में आपका पहला दीवान प्रकाशित हुआ। सन् 1272 में आप बलबन के दरबार में दरबारी कवि नियुक्त हुए। 1279 में अपने दूसरे क़लाम वस्तुल-हयात के लेखन के दौरान आपने बंगाल की यात्रा की। 1281 में आप बलबन के दूसरे पुत्र सुल्तान मुहम्मद के दरबार में नियुक्त हुए और सुल्तान के साथ मुल्तान की यात्रा की। 1285 में आपने मंगोलों के ख़िलाफ़ लड़ाई भी लड़ी और गिरफ़्तार भी हुए, लेकिन जल्द ही रिहा कर दिये गये। इसके बाद निज़मुद्दीन औलिया, अलाउद्दीन ख़िलजी, मुबारक़ ख़िलजी और मुहम्मद बिन तुगलक़ जैसे सुल्तानों की कहानी की गवाही देते हुए 72 वर्ष की आयु में सन् 1325 में आपका निधन हो गया।

आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने आपका परिचय देते हुए लिखा है- “पृथ्वीराज की मृत्यु (संवत् 1249) के 90 वर्ष पीछे ख़ुसरो ने संवत् 1340 के आसपास रचना आरंभ की। इन्होंने गयासुद्दीन बलबन से लेकर अलाउद्दीन और क़ुतुबुद्दीन मुबारक़शाह तक कई पठान बादशाहों का ज़माना देखा था। ये फारसी के बहुत अच्छे ग्रंथकार और अपने समय के नामी कवि थे। इनकी मृत्यु संवत् 1381 में हुई। ये बड़े ही विनोदी, मिलनसार और सहृदय थे, इसी से जनता की सब बातों में पूरा योग देना चाहते थे। जिस ढंग से दोहे, तुकबंदियाँ और पहेलियाँ आदि साधारण जनता की बोलचाल में इन्हें प्रचलित मिलीं उसी ढंग से पद्य, पहेलियाँ आदि कहने की उत्कंठा इन्हें भी हुई। इनकी पहेलियाँ और मुकरियाँ प्रसिद्ध हैं। इनमें उक्ति वैचित्र्य की प्रधानता थी, यद्यपि कुछ रसीले गीत और दोहे भी इन्होंने कहे हैं।

यहाँ इस बात की ओर ध्यान दिला देना आवश्यक प्रतीत होता है कि ‘काव्य-भाषा’ का ढाँचा अधिकतर शौरसेनी या पुरानी ब्रजभाषा का ही बहुत काल से चला आता था। अत: जिन पश्चिमी प्रदेशों की बोलचाल खड़ी होती थी, उनमें जनता के बीच प्रचलित पद्यों, तुकबंदियों आदि की भाषा ब्रजभाषा की ओर झुकी हुई रहती थी। अब भी यह बात पाई जाती है। इसी से ख़ुसरो की हिन्दी रचनाओं में भी दो प्रकार की भाषा पाई जाती है। ठेठ खड़ी बोलचाल, पहेलियों, मुकरियों और दो सखुनों में ही मिलती है- यद्यपि उनमें भी कहीं-कहीं ब्रज भाषा की झलक है। पर गीतों और दोहों की भाषा ब्रज या मुखप्रचलित काव्यभाषा ही है। यह ब्रजभाषापन देख उर्दू साहित्य के इतिहास लेखक प्रो. आज़ाद को यह भ्रम हुआ था कि ब्रजभाषा से खड़ी बोली (अर्थात् उसका अरबी-फारसी ग्रस्त रूप उर्दू) निकल पड़ी।”

Alok Srivastava : आलोक श्रीवास्तव

30 दिसंबर 1971 को मध्य-प्रदेश के शाजापुर में जन्मे आलोक श्रीवास्तव का बचपन मध्य-प्रदेश के सांस्कृतिक नगर विदिशा में गुज़रा और वहीं से आपने हिंदी में स्नातकोत्तर तक शिक्षा ग्रहण की। दिल्ली से प्रकाशित आपका पहला ग़ज़ल-संग्रह ख़ासा चर्चित रहा। पत्रकारिता से जुड़े होने के कारण आपकी प्रतिभा में स्वतः ही एक बारीक़ अन्वेषण की झलक दिखाई देती है। बेहद बारीक़ अहसासात को स्पर्श करती हुई आपकी ग़ज़लियात अपनी संवेदनाओं के लिये जानी जाती हैं। सलीक़े से कही गई कड़वी बातें भी आपकी रचनाधर्मिता की उंगली पकड़कर अदब की महफ़िल में आ खड़ी होती हैं। जगजीत सिंह और शुभा मुद्गल जैसे फ़नक़ारों ने आपकी ग़ज़लियात को स्वर दिया है। इन दिनों आप दिल्ली में एक समाचार चैनल में कार्यरत हैं। यदि पुरस्कारों की फ़ेहरिस्त बनाई जाए तो ‘अभिनव शब्द शिल्पी सम्मान 2002’;  ‘मप्र साहित्य अकादमी का दुष्यंत कुमार पुरस्कार-2007’; ‘भगवत शरण चतुर्वेदी सम्मान 2008’; ‘परंपरा ऋतुराज सम्मान-2009’ और ‘विनोबा भावे पत्रकारिता सम्मान-2009’ आपके खाते में अभी तक आते हैं।

Akhlaq Muhammad Khan Shaharyar : अख़लाक़ मुहम्मद खान ‘शहरयार’


 

नाम : अख़लाक़ मुहम्मद खान ‘शहरयार’
जन्म : 16 जून 1936; आंवला; बरेली
शिक्षा : पीएच.डी. (उर्दू)

पुरस्कार एवं सम्मान
साहित्य अकादमी पुरस्कार (1987)
ज्ञानपीठ पुरस्कार (2008)
फ़िराक सम्मान
बहादुरशाह ज़फर पुरस्कार

निधन : 13 फरवरी 2012 (अलीगढ़)