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ग़लत-सलत

सवाल सब ग़लत-सलत; जवाब सब ग़लत-सलत
हैं भाव सब ग़लत-सलत; हिसाब सब ग़लत-सलत
ख़ुशी सही, न ग़म सही; न तुम सही, न हम सही
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

नशे में ख़ुश्बुओं के ख़ुद, गुलों ने शाख़ तोड़ दी
रुतों ने जाम भर लिए, बची जो कल पे छोड़ दी
समुन्दरों की सम्त ही, गईं तमाम बदलियाँ
ज़रूरतों ने आरज़ू यहाँ-वहाँ निचोड़ दी
यहाँ पे सब अजीब है, जो मिल गया नसीब है
नज़र में हैं जो भूख की, वो ख्वाब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

है सुब्ह चुप, है शाम चुप, अवाम चुप, निज़ाम चुप
ग़मों पे बेग़मात के, हैं शाह चुप, ग़ुलाम चुप
है दौर-ए-बेहिसी, कोई ज़ुबान खोलता नहीं
न जाने कैसा शोर है, रहीम चुप, है राम चुप
तमाम ज़िद्द फ़िज़ूल की, चली न एक शूल की
रखें ने बाग़बान ने ग़ुलाब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

ग़ुरूर ताज का कहीं, फ़राज़ का सुरूर है
कहीं तमाम उम्र की थकन से जिस्म चूर है
तेरा ही मर्तबा सही, तू ही यहाँ ख़ुदा सही
मगर तेरे निसार में कमी तो कुछ ज़रूर है
जहाँ लबों पे प्यास है, न जाम आसपास है
न जाने किसने बाँट दी, शराब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

चला जो तीर बेसबब, बहा जो नीर बेसबब
उठी जो अह्ले-अम्न के दिलों में पीर बेसबब
कहीं पे कुछ घटा नहीं, कहीं पे कुछ बढ़ा नहीं
यहाँ पे मीर बेसबब, यहाँ कबीर बेसबब
न जाने क्या लिखा गया, न जाने क्या पढ़ा गया
जहाँ में यार अम्न की किताब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

न फूल की न ख़ार की, न जुस्तजू बहार की
जिगर को अब कोई तलब, न जीत की न हार की
उदास है कली इधर, ग़ुलों में बेक़ली उधर
जली-बुझी, बुझी-जली, है शम्अ इंतज़ार की
न जाने वो कहाँ गया, न जाने मैं कहाँ गया
हुआ है ज़िन्दगी में सब ख़राब सब ग़लत-सलत
हुज़ूर सब ग़लत-सलत! जनाब सब ग़लत-सलत!

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

तुम्हारी फ़ाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है
मगर ये आँकड़े झूठे हैं, ये दावा किताबी है

उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो
इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है, नवाबी है

लगी है होड़-सी देखो, अमीरी और ग़रीबी में
ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी ख़राबी है

तुम्हारी मेज़ चांदी की, तुम्हारे जाम सोने के
यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है

© Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

नेताजी का नख-शिख वर्णन

सिर
बेपैंदी के लोटे-सा सिर शोभित
शीश-क्षितिज पर लघु-लघु कुंतल
सूखाग्रस्त क्षेत्र में जैसे
उजड़ी हुई फसल दिखती हो
धवल हिमालय-सा गर्वित सिर
अति उन्नत सिर
वोट मांगते समय स्वयं यों झुक जाता है
सिया-हरण से पूर्व झुका था जैसे रावण
या डसने से पूर्व सर्प जैसे झुकता है
स्वर्ण पट्टिका-सा ललाट है
कनपटियों तक
चंदन-चित्रित चौड़ा माथा
कनपटियों पर रेख उभरती कूटनीति की
माथे पर दुर्भाग्य देश का लिखा हुआ है

कान
सीपी जैसे कान शब्द जय-जय के मोती
कान नहीं ये षडयंत्रों के कुटिल भँवर हैं
एक कान ज्यों विरोधियों के लिए चक्रव्यूह
एक कान ज्यों चुगलखोर चमचे का कमरा!

नयन
रिश्वत के अंजन से अंजित
पर मद-रंजित
दूर किसी ऊँची कुर्सी पर
वर्षों से टकटकी लगाए
गिध्द नयन दो
भौहें हैं ज्यों मंत्री-मंडल की बैठक हो
पलकें ज्यों उद्धाटन मदिरा की दुकान का
अंतरंग कमरे-सी भीतर काली पुतली
पुतली में छोटा-सा गोलक जैसे कुर्सी
क्रोध-कुटिलता कपट कोरकों में बैठे हैं
शर्म न जाने इन ऑंखों में कहाँ छुप गई!

नाक
शहनाई-सी नाक, नफीरी जैसे नथुने
नाक नुकीली में ऊपर से है नकेल
पर नथ करती है
है नेता की नाक, नहीं है ऐरी-गैरी
कई बार कट चुकी किंतु फिर भी अकाटय है!

मुख
होंठ कत्थई इन दोनों होठों का मिलना
कत्थे में डूबा हो जैसे चांद ईद का
चूने जैसे दाँत, जीभ ताम्बूल पत्र-सी
आश्वासन का जर्दा भाषण की सुपाड़ियाँ
नेताजी का मुख है अथवा पानदान है
अधरों पर मुस्कान सितारे जैसे टूटें
बत्तीसी दिखती बत्तीस मोमबत्ती-सी
बड़ा कठिन लोहे के चने चबाना लेकिन
कितने लोहे के पुल चबा लिए
इन दृढ़ दाँतों ने
निगल गई यह जीभ
न जाने कितनी सड़कें
लोल-कपोल गोल मुख-मंडल
मुख पर काला तिल कलंक-सा
चांद उतर आया धरती पर
नेता की सूरत में!

गर्दन
मटके जैसी गरदन पर ढक्कन-सी ठोड़ी
कितनी बार झुकी यह गरदन यह मत पूछो
अनगिन बार उठी है फोटो खिंचवाने को
अनगिन मालाओं का भारी बोझ पड़ा है बेचारी पर

वक्षस्थल
वक्षस्थल चट्टान उठाए पत्थर-सा दिल
त्रिवली-तिकड़म पंथ
पेट की पगडन्डी पर
गुप्त पंथ काले धन का
तस्कर चोरों का
इसी पंथ से लुकते-छिपते धीरे-धीरे
नाभि कुंड में समा गई सभ्यता देश की
जिसको पाकर कटि-प्रदेश फैला थैली-सा!

पेट
पेट वक्ष से बड़ा पेट से बड़ी कमर है
ज्यों-ज्यों बढ़ती है महंगाई
त्यों-त्यों कटि बढ़ती जाती है
सुरसा-हनुमान में होड़ लगी हो जैसे
गोल मेज-सी कमर पर मत पेटी-सा पेट
बहुमत खाकर बहुत सा, गए पलंग पर लेट!

कंधे
कंधों पर गरदन है या गरदन पर कंधे
इन कंधों को देख सांड भी शर्माते हैं
इतना ढोया भार देश का इन कंधों ने
अब ये स्वयं देश को ही भारी पड़ते हैं

हाथ
अजगर जैसी लम्बी बाँहें
चांदी की खुरपी जैसे नाखून
अंगुलियाँ हैं कटार-सी
फिर भी इनके ये कर कमल कहे जाते हैं
इन हाथों से हाथ मिलाना खेल नहीं है
इन हाथों के हस्ताक्षर के सारे अक्षर स्वर्णाक्षर हैं
क्या न किया इन हाथों ने भारत की ख़ातिर
उद्धाटन करते-करते घिस गईं लकीरें
पूरी उम्र न जितनी जेबें काटीं किसी जेबकतरे ने
एक वर्ष में उतने फीते काटे इन कोमल हाथों ने
अवतारों के हाथ हुआ करते घुटनों तक
इनके पिंडली तक लटके हैं

पिंडली-पाँव
विरोधियों के पिंड-दान-सी चुस्त पिंडली
गड़े हुए धन जैसे टखने
नीचे दो सोने की ईंटें
जिन पर जड़े हुए दस मोती
स्वर्ण-चरण को चाट रहे चांदी के चमचे
आचरणों को कौन देखता
चरण बहुत अच्छे हैं
भारत-माता की छाती पर घाव सरीखे दिखते हैं जो
हैं सब चिन्ह इन्हीं चरणों के!

चाल (चलन)
चाल चुनावों से पहले चीते-सी लम्बी
मंत्री मंडल में आने के लिए
साँप-सी टेढ़ी-मेढ़ी
मंत्री पद पा जाने पर
मदमस्त हाथी-सी धीमी-धीमी
गिरगिट जैसा रंग देह का बगुले जैसा वेश
देश ध्यान में ये डूबे हैं, इनमें डूबा देश!

© Omprakash Aditya : ओमप्रकाश ‘आदित्य

 

न महलों की बुलंदी से

न महलों की बुलंदी से, न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिए पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिरां में ताक़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
संजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को करीने से

© Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साए में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी

रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी

दफ़्न होता है जहाँ आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी

© Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

इधर भी गधे हैं, उधर भी गधे हैं

इधर भी गधे हैं उधर भी गधे हैं
जिधर देखता हूँ गधे ही गधे हैं

गधे हँस रहे आदमी रो रहा है
हिन्दोस्ताँ में ये क्या हो रहा है

जवानी का आलम गधों के लिए है
ये रसिया, ये बालम गधों के लिए है

ये दमदम ये पालम गधों के लिए है
ये संसार सालम गधों के लिए है

ज़माने को उनसे हुआ प्यार देखो
गधों के गले में पड़े हार देखो

ये सर उनके क़दमों पे क़ुरबान कर दो
हमारी तरफ़ से ये ऐलान कर दो

कि अहसान हम पे है भारी गधों के
हुए आज से हम पुजारी गधों के

पिलाए जा साक़ी पिलाए जा डट के
तू विस्की के मटके पे मटके पे मटके

मैं दुनिया को अब भूलना चाहता हूँ
गधों की तरह फूलना चाहता हूँ

घोडों को मिलती नहीं घास देखो
गधे खा रहे हैं च्यवनप्राश देखो

यहाँ आदमी की कहाँ कब बनी है
ये दुनिया गधों के लिए ही बनी है

जो गलियों में डोले वो कच्चा गधा है
जो कोठे पे बोले वो सच्चा गधा है

जो खेतों में दीखे वो फसली गधा है
जो माइक पे चीखे वो असली गधा है

मैं क्या बक रहा हूँ, ये क्या कह गया हूँ
नशे की पिनक में कहाँ बह गया हूँ

मुझे माफ़ करना मैं भटका हुआ था
ये ठर्रा था भीतर जो अटका हुआ था!

© Omprakash Aditya : ओमप्रकाश ‘आदित्य

 

 

भूख के अहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो

भूख के अहसास को शेरो-सुख़न तक ले चलो
या अदब को मुफ़लिसों की अंजुमन तक ले चलो

जो ग़ज़ल माशूक़ के जल्वों से वाक़िफ़ हो गई
उसको अब बेवा के माथे की शिक़न तक ले चलो

मुझको नज़्मो-ज़ब्त की तालीम देना बाद में
पहले अपनी रहबरी को आचरन तक ले चलो

गंगाजल अब बुर्जुआ तहज़ीब की पहचान है
तिश्नगी को वोदका के आचमन तक ले चलो

ख़ुद को ज़ख्मी कर रहे हैं ग़ैर के धोखे में लोग
इस शहर को रोशनी के बाँकपन तक ले चलो

Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

देवता बहरा हुआ है

पूजने वाले का संकट और भी गहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

हम अभागों के दुखों को देखकर रोया कभी जो
क्रांति की ज्वाला जगा कर फिर नहीं सोया कभी जो
ईश जाने उस हृदय पर कौन सा पहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

जिसने मजदूरों के पैरों में चुभे काँटे निकाले
जिसने सब आदेश भूखों के लिए खुद फूंक डाले
अन्न का वितरण उसी के हुक्म पर ठहरा हुआ है
जब से वेदी पर विराजा, देवता बहरा हुआ है

खून की परवाह तजने का सबक दे साथियों को
वो कहा करता था तोड़ेगा बरसती लाठियों को
आजकल लाठी पे कपड़ा खून का फहरा हुआ है
जबसे वेदी पर विराजा देवता बहरा हुआ है

© Chirag Jain : चिराग़ जैन