अधखुली ऑंखों में
थिरकती नन्हीं पुतलियाँ
प्रतिबिम्बों का भार ढो रही हैं
पश्चिम के दरवाज़े पर
प्रतीक्षा से ऊबी
स्मृतियाँ
सिसक-सिकक
रो रही हैं।
– आचार्य महाप्रज्ञ
अधखुली ऑंखों में
थिरकती नन्हीं पुतलियाँ
प्रतिबिम्बों का भार ढो रही हैं
पश्चिम के दरवाज़े पर
प्रतीक्षा से ऊबी
स्मृतियाँ
सिसक-सिकक
रो रही हैं।
– आचार्य महाप्रज्ञ
रुकना इसकी रीत नहीं है
वक़्त क़िसी का मीत नहीं है
जबसे तन्हा छोड़ गए वो
जीवन में संगीत नहीं है
माना छल से जीत गए तुम
जीत मगर ये जीत नहीं है
जिसको सुनकर झूम उठे दिल
ऐसा कोई गीत नहीं है
जाने किसका श्राप फला है
सपनों में भी ‘मीत’ नहीं है
© Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’
अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक
इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक
इन्तिहा हर किसी की होती है
दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक
मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं
ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक
कोई जैसे कि अजनबी से मिले
ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक
जिसको आना है क्यूँ नहीं आता
अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक
© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी