पागलखाना

मीनू! यहाँ पागल नहीं रहते ये वे लोग हैं जो समाज के पैंतरों से वाक़िफ़ नहीं थे। सच को सच झूठ को झूठ बताते रहे मन में मैल चेहरे पर मुस्कान रखने का हुनर इनके पास नहीं था ये किसी की भावनाओं से नहीं खेलते थे किसी को इमोशनल ब्लैकमेल नहीं करते थे मीनू यहाँ ठहरे लोग पागल नहीं हैं पागल है इस पागलखाने के बाहर की पूरी दुनिया! यहाँ हम घंटो-घंटो बतिया सकते हैं एक-दूसरे का दुख-दर्द बाँट सकते हैं गलबहियाँ डालकर घंटों रो सकते हैं घंटों हँस सकते हैं यहाँ समाज की कोई पाबंदी नहीं है। यहाँ कोई नहीं आएगा कहने तुम पागलों की तरह क्यों हँस रही हो…! यहाँ हर उस बात की इज़ाज़त है जिसकी इज़ाज़त तुम्हारा सभ्य समाज कभी नहीं देगा रात को दो बजे तुम चीख-चीख कर रो सकती हो किसी की मौत पर तुम ज़ोर-ज़ोर से हँस सकती हो दुश्मन को दुश्मन और दोस्त को दोस्त कह सकती हो यहाँ चेहरे पर छद्म मुस्कान और कलेजे पर पत्थर रखने की ज़रूरत नहीं। यहाँ दिखावा नहीं चलता यहाँ सच्चाई चलती है। आज तुम्हारी आँखों में मेरे लिए प्रेम नहीं था दया, तरस, सहानुभूति के भाव थे सभ्य समाज की एक नारी एक पागल के लिए मन में इसी तरह के भाव रख सकती है मुझे दु:ख नहीं इस बात का दु:ख सिर्फ़ इतना है कि तुमने भी औरों की तरह सोचा। © Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’