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भविष्य

भविष्य!
वर्तमान से निर्मित होता है
वर्तमान!
भविष्य में प्रतिबिंबित होता है
जो वर्तमान में जीता है
भविष्य उसी का होता है

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

स्मृतियाँ

अधखुली ऑंखों में
थिरकती नन्हीं पुतलियाँ
प्रतिबिम्बों का भार ढो रही हैं
पश्चिम के दरवाज़े पर
प्रतीक्षा से ऊबी
स्मृतियाँ
सिसक-सिकक
रो रही हैं।

– आचार्य महाप्रज्ञ

 

रुकना इसकी रीत नहीं है

रुकना इसकी रीत नहीं है
वक़्त क़िसी का मीत नहीं है

जबसे तन्हा छोड़ गए वो
जीवन में संगीत नहीं है

माना छल से जीत गए तुम
जीत मगर ये जीत नहीं है

जिसको सुनकर झूम उठे दिल
ऐसा कोई गीत नहीं है

जाने किसका श्राप फला है
सपनों में भी ‘मीत’ नहीं है

© Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’

 

कभी दस्तूर शीशे के

साइल राहे-उल्फ़त में मिले भरपूर शीशे के
कभी दीवार शीशे की, कभी दस्तूर शीशे के

ये दुनिया ख़ुद में है फ़ानी यहाँ सब टूट जाता है
महल वालो न रहना तुम, नशे में चूर, शीशे के

वो कोई दौर था, जब थी फटी चादर कबीरों की
यहाँ शीशे के ग़ालिब हैं, यहाँ हैं सूर शीशे के

नहीं मालूम कैसे, कब, कहाँ से आ गए पत्थर
चलो अच्छा हुआ हम-तुम खड़े थे दूर शीशे के

नहीं मंज़ूर हमको दोस्त पत्थर के ‘चरन’ सुन ले
मगर दुश्मन भी हमको तो नहीं मंज़ूर शीशे के

 

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक
इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक

इन्तिहा हर किसी की होती है
दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक

मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं
ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक

कोई जैसे कि अजनबी से मिले
ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक

जिसको आना है क्यूँ नहीं आता
अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई

ये चार काग़ज़, ये लफ्ज़ ढाई
है उम्र भर की यही कमाई

किसी ने हम पर जिगर उलीचा
किसी ने हमसे नज़र चुराई

दिया ख़ुदा ने भी ख़ूब हमको
लुटाई हमने भी पाई-पाई

न जीत पाए, न हार मानी
यही कहानी, ग़ज़ल, रुबाई

न पूछ कैसे कटे हैं ये दिन
न माँग रातों की यूँ सफाई

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य

 

ज़िन्दगी हिसाब में चली गई

बचपन रेल-वेल-खेल में निकल गया
चढ़ती जवानी किसी ख्वाब में चली गई
कुछ पल सजने-सँवरने के नाम गए
और कुछ झूठे हाव-भाव में चली गई
सही व ग़लत के मुग़ालते में गई कुछ
कुछ भावनाओं के बहाव में चली गई
कुछ लेन-देन खाने-पीने में निकल गई
और बाक़ी ज़िन्दगी हिसाब में चली गई

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

जीनी है ज़िन्दगी तो जियो प्यार की तरह

जीनी है ज़िन्दगी तो जियो प्यार की तरह
क्यूँ जी रहे हो तुम इसे तक़रार की तरह

बनना है गर महकते हुए फूल ही बनो
पाँवों में मत चुभो किसी के ख़ार की तरह

मिलना है मुझसे गर तो खुले ज़ेह्न से मिलो
मिलना नहीं है अब मुझे हर बार की तरह

गर चाहते हो तुमको मिलें क़ामयाबियाँ
चलना पड़ेगा वक़्त की रफ़्तार की तरह

जीवन के हर इक पल को जियो धूमधाम से
मत बेवज़ह जियो किसी बीमार की तरह

जिस घर ने पाल-पोस के तुमको बड़ा किया
आंगन को उसके बाँटो मत दीवार की तरह

दोज़ख़ में भी उनको ज़मीं दो गज़ न मिलेगी
माँ-बाप जिन्हें लगने लगें भार की तरह

© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल

 

मृत्यु गीत

अब शीघ्र करो तैयारी मेरे जाने की
रथ जाने को बाहर तैयार खड़ा मेरा
है मंज़िल मेरी दूर बहुत पथ दुर्गम है
हर एक दिशा पर डाला है तम ने डेरा

कल तक तो मैंने गीत मिलन के गाये थे
पर आज विदा का अंतिम गीत सुनाऊंगा
कल तक आंसू से मोल दिया जग जीवन का
अब आज लहू से बाकी क़र्ज़ सुनाऊंगा

कल खेला था अलियों कलियों के गलियों में
अब आज मुझे मरघट में रास रचाने दो
कल मुस्काया था बैठ किसी की पलकों पर
अब आज चिता पर बैठ मुझे मुस्काने दो

कल सुनकर मेरे गीत हँसे मुस्काये तुम
अब आज अश्रु तुम मेरे साथ बहा लेना
कल तक फूलों की मालाएं पहनाई थीं
गलहार अंगारों का पर अब पहना देना

बेकार बहाना, टाल-मटोल व्यर्थ सारी
आगया समय जाने का जाना ही होगा
तुम चाहे जितना चीखो चिल्लाओ रोओ
पर मुझको डेरा आज उठाना ही होगा

अब चाहूँ भी तो मैं रुक सकता नहीं दोस्त
कारण मंजिल ही खुद ढिंग बढ़ती आती है
मैं जितना पैर टिकाने की कोशिश करता
उतनी ही मिटटी और धसकती जाती है

वह देखो लहरों में तूफानी हलचल है
उस पार खड़ा हो कर कोई मुस्काता है
जिसके नयनों में मौन इशारों पर मेरा
साहिल खुद लहरों के संग बहता जाता है

फिर तुम्हीं कहो किस और बचूं, भागूं, जाऊं
नामुमकिन है अम्बर के ऊपर चढ़ जाना
है संभव नहीं धरा के ऊपर धंस जाना
नामुमकिन है धार पंख पवन में उड़ जाना

पर यदि यह भी सब संभव हो तो क्या बोलो
अपने से बच कर कौन कहाँ जा सकता है
सांसो पर जो पड़ चूका काल का नागपाश
उससे छुटकारा कौन कहाँ पा सकता है?

देखो चिपटी है राख चिता की पैरों में
अंगार बना जलता है रोम रोम मेरा
है चिता सृदश धू-धू करती सारी देही
है कफ़न बंधा सर पर सुधि को तम ने घेरा

हूँ इसीलिए कहता मत चीखो चिल्लाओ
मत आंसू से तुम मेरा पथ रोको साथी
मत फैलाओ आलिंगन की प्यासी बांहें
मत मुझे सुनाओ प्रेम भरी अपनी पाती

तुम कहते हो मेरे यूँ असमय जाने से
सारा संसार तुम्हें सूना हो जायेगा
जीवन की हंसी ख़ुशी मिट जायेगी सारी
यह पंथ कठिन दूभर दूना हो जायेगा

लेकिन यह कहने सुनने की बातें हैं सब
संसार किसी के लिए नहीं मिटता भाई
होती दुनिया सूनी न किसी के बिना कभी
है समय किसी के लिए नहीं रुकता भाई

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’

 

गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ, तो चलूँ

ऐसी क्या बात है
चलता हूँ, अभी चलता हूँ
गीत इक और ज़रा झूम के गा लूँ, तो चलूँ

भटकी-भटकी है नज़र, गहरी-गहरी है निशा
उलझी-उलझी है डगर, धुँधली-धुँधली है दिशा
तारे ख़ामोश खड़े, द्वारे बेहोश पड़े
सहमी-सहमी है किरण, बहकी-बहकी है उषा
गीत बदनाम न हो, ज़िन्दगी शाम न हो
बुझते दीपों को ज़रा सूर्य बना लूँ तो चलूँ

बाद मेरे जो यहाँ और हैं गाने वाले
सुर की थपकी से पहाड़ों को सुलाने वाले
उजाड़ बाग़-बियाबान-सूनसानों में
छंद की गंध से फूलों को खिलाने वाले
उनके पैरों के फफोले न कहीं फूट पड़ें
उनकी राहों के ज़रा शूल हटा लूँ तो चलूँ

ये घुमड़ती हुईं सावन की घटाएँ काली
पेंगें भरती हुई आमों की ये गद्दड़ डाली
ये कुएँ, ताल, ये पनघट ये त्रिवेणी संगम
कूक कोयल की, ये पपिहे की पिऊँ मतवाली
क्या पता स्वर्ग में फिर इनका दरस हो कि न हो
धूल धरती की ज़रा सिर पे चढ़ा लूँ तो चलूँ

कैसे चल दूँ अभी कुछ और यहाँ मौसम है
होने वाली है सुबह पर न सियाही कम है
भूख, बेकारी, ग़रीबी की घनी छाया में
हर ज़ुबाँ बंद है हर एक नज़र पुरनम है
तन का कुछ ताप घटे, मन का कुछ पाप कटे
दुखी इंसान के आँसू में नहा लूँ तो चलूँ

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’