अनलिखी कविता

कल कोई मिला अचानक और पूछा उसने- क्या लिख रही हो आजकल? प्रश्न पर चौंकी मैं याद आया कभी लिखती थी मैं भी! कविता; कहानी और कुछ यूँ ही अब लिखना तो दूर पढ़ा भी नहीं कितने सालों से आश्चर्य है! कैसे जी गई मैं इतने दिन मुझे तो नींद नहीं आती थी रात में भी पढ़े बिन लिखना तो शुरू करना है आज से ही, सोचकर ज़ोर से सिर हिलाया तो पाया, ऑफिस से एक बस-स्टॉप आगे निकल आई थी…. बॉस की घूरती आँखें याद कर तेज़ी से क़दम बढ़ाए सोचा था ‘लंच टाइम’ में ही लिख डालूंगी पर उसमें तो बच्चों को फोन मिलाना होता है कैसा रहा दिन? -यह पूछकर कहाँ रखा है खाना? -ये भी बताना होता है शाम जब घर पहुँची तो देखा पति तो पहले ही लौट आए हैं हुआ है किसी से झगड़ा पता चलता है हाव-भाव से पत्नी-धर्म निभाया पहले उन्हें मनाया जब दिखा सब सामान्य तो याद आया बच्चों को ‘होमवर्क’ करवाना है खाना भी बनाना है सुबह की तैयारी ज़रूरी है और काटकर रखनी है सब्ज़ी भी सब कुछ निपटा कर मन में चैन और शरीर में थकन लिए जब लौटी कमरे में तो सोचा अब कुछ क्षण हैं मेरे अपने सो खोज ही डालूँ वो पुरानी डायरी यह सोच कर अलमारी टटोलने को जैसे ही हाथ बढ़ाया तो एक आवाज़ आई -”बत्ती बुझा दो।” बिस्तर पर पड़े-पड़े जब सो गई तो देखा एक सपना कि एक चिड़िया पिंजरे की तीलियों पर सिर पटक-पटक कर शायद बाहर निकलना चाहती थी और फिर थक-हार कर उसी पिंजरे की किसी एक तीली पर सिर रख कर सो चुकी थी। © Sandhya Garg : संध्या गर्ग