सपना

अक्सर रात को एक सपना देखती हूँ कि बैठी हूँ एक झरने के पास पानी ऊपर से झर-झर कर नीचे आता है स्वच्छ-निर्मल जल मन को ललचाता है भर लेना चाहती हूँ पानी की धार को अपनी अंजुरी में लेकिन क्षण भर भी नहीं रोक पाती हूँ उसे और वह फिसल कर फिर जा मिलता है झरने के जल में ही। ठीक उसी क्षण टूट जाता है सपना शायद ये मेरा सुख है जो दूर से मुझे ललचाता है लेकिन जब उसे पाने की क़ोशिश करती हूँ तो पानी की ही तरह छिटक जाता है और मैं! …मैं हाथ फैलाए बहुत पास से देखती रहती हूँ उस सुख को जिसे मैं पा नहीं सकती। © Sandhya Garg : संध्या गर्ग