वह प्रेम कैसा

थे प्रयोजन प्रेम के सारे वहां पर, पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा? स्वर्ण के रथ पर लिए उन्माद यौवन रूप से था मांगता ख़ुद प्राण दर्पण हंस रही थी हर दिशा में कामनाएं मद नहाई थी वहां हर एक चितवन गन्ध के थे फूल हरकारे वहां पर, पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा? मेघ के उर में दमकती दामिनी थी उड़ रहा आंचल, हवा सह गामिनी थी हो लगन तम से किरण का जिस घड़ी में शुभ मुहूरत सी खिली वह यामिनी थी आरती के थाल में तारे वहां पर, पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा दे रही थी भोर को रजनी विदाई आंख शबनम की तभी तो छलछलाई मिल सकेंगी सांझ ढलने के पहर ही हो गई हैं रश्मियाँ अब तो पराई पालकी आई निशिथ द्वारे वहां पर, पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा सब सुरों में था घुला आनन्द साथी मालती भी गा रही जैसे प्रभाती काल क्रम को दे रही आशीष भावी साथ दिन-रैना रहें, बन दीप-बाती कर्म थे ना भाग्य के मारे वहाँ पर, पर, जहां हम-तुम नहीं वह प्रेम कैसा © Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला