प्रासाद का सिर झुक गया है

झोंपड़ी के सामने प्रासाद का सिर झुक गया है झोंपड़ी के द्वार पर अब सूर्य का रथ रुक गया है राजपथ संकीर्ण है, पगडंडियां उन्मुक्त हैं अर्ध पूर्ण विराम क्यों जब वाक्य ये संयुक्त हैं शब्द से जो कह न पाया मौन रहकर कह गया है कौन मुझको दे रहा व्यवधान मेरे भ्रात से ही दे रहा है कौन रवि को अब निमंत्रण रात से ही शून्य में सरिता बहाकर पवन नभ को ढग गया है श्रमिक से श्रमबिन्दु में निर्माण बिम्बित हो रहा है बिन्दु की गहराइयों में सिन्धु जैसे खो रहा है उलझती शब्दावली में सुलझता चिन्तन गया है © Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ