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थोड़ा-सा आसमान

किसी तरह दिखता भर रहे थोड़ा-सा आसमान
तो घर का छोटा-सा कमरा भी बड़ा हो जाता है
न जाने कहाँ-कहाँ से इतनी जगह निकल आती है
कि दो-चार थके-हारे और आसानी से समा जाएँ
भले ही कई बार हाथों-पैरों को उलांघ कर निकलना पड़े
लेकिन कोई किसी से न टकराए।

जब रहता है, कमरे के भीतर थोड़ा-सा आसमान
तो कमरे का दिल आसमान हो जाता है
वरना कितना मुश्क़िल होता है बचा पाना
अपनी कविता भर जान!

© Bhagwat Rawat : भगवत रावत

 

कठपुतली

कठपुतली
गुस्‍से से उबली
बोली- ये धागे
क्‍यों हैं मेरे पीछे-आगे?
इन्‍हें तोड़ दो
मुझे मेरे पाँवों पर छोड़ दो

सुनकर बोलीं
और-और कठपुतलियाँ
कि हाँ
बहुत दिन हुए
हमें
अपने मन के छंद छुए

मगर…
पहली कठपुतली सोचने लगी-
यह कैसी इच्‍छा
मेरे मन में जगी

© Bhawani Prasad Mishra : भवानी प्रसाद मिश्र