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रोज़ मिलता है वनवास

राम इस दौर का बुढ़ापे का सहारा बने
रहती है बस यही आस दशरथ को
तृष्णा की मंथरा दरार डाल दे न कहीं
सालता है यही अहसास दशरथ को
लाडलों ने जाने कैसा फ़रमान रख दिया
आज फिर देखा है उदास दशरथ को
राम को मिला था वनवास युग बीत गए
रोज़ मिलता है वनवास दशरथ को

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

चुप्पियाँ तोड़ना जरुरी है

चुप्पियाँ तोड़ना ज़रुरी है
लब पे कोई सदा ज़रुरी है

आइना हमसे आज कहने लगा
ख़ुद से भी राब्ता ज़रुरी है

हमसे कोई ख़फ़ा-सा लगता है
कुछ न कुछ तो हुआ ज़रुरी है

ज़िंदगी ही हसीन हो जाए
इक तुम्हारी रज़ा ज़रुरी है

अब दवा का असर नहीं होगा
अब किसी की दुआ ज़रुरी है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक

अपनी आवाज़ ही सुनूँ कब तक
इतनी तन्हाई में रहूँ कब तक

इन्तिहा हर किसी की होती है
दर्द कहता है मैं उठूँ कब तक

मेरी तक़दीर लिखने वाले, मैं
ख़्वाब टूटे हुए चुनूँ कब तक

कोई जैसे कि अजनबी से मिले
ख़ुद से ऐसे भला मिलूँ कब तक

जिसको आना है क्यूँ नहीं आता
अपनी पलकें खुली रखूँ कब तक

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी