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कोई गीत नहीं लिखा

तुम रूठी तो मैंने रोकर, कोई गीत नहीं लिखा
इस ग़म में दीवाना होकर, कोई गीत नहीं लिखा
तुम जब मेरे संग थी तब तक नज़्में-ग़ज़लें ख़ूब कहीं
लेकिन साथ तुम्हारा खोकर कोई गीत नहीं लिखा

ऐसा नहीं तुम्हारी मुझको याद नहीं बिल्कुल आती
मन भर-भर आता है फिर भी साँस नहीं रुकने पाती
ख़ुद से उखड़ा रहता हूँ पर जीवन चलता रहता है
शायद मैंने खण्डित की है प्रेमनगर की परिपाटी
इसीलिए तो नयन भिगोकर कोई गीत नहीं लिखा

तुम्हें बतानी थी नग्मों में प्रेम-वफ़ा की परिभाषा
और जतानी थी फिर से मिलने की अंतिम अभिलाषा
तुम्हें उलाहना देना था या ख़ुद को दोषी कहना था
और फिर ईश्वर के आगे रखनी थी कोई जिज्ञासा
मैंने अब तक आख़िर क्योंकर कोई गीत नहीं लिखा

संबंधों की पीड़ा भी है, भीतर का खालीपन भी
मुझसे घण्टों बतियाता रहता है मेरा दरपन भी
रात-रात भर भाव घुमड़ते रहते हैं मन के भीतर
नयन कोर पर हो ही जाता है आँसू का तर्पण भी
इतना सब सामान संजोकर कोई गीत नहीं लिखा

सारी दुनिया को कैसे बतलाऊंगा अपनी बातें
आकर्षण, अपनत्व, समर्पण और पीड़ा की बरसातें
जिन बातों को हम-तुम बस आँखों-आँखों में करते थे
क्या शब्दों में बंध पाएंगी वो भावों की सौगातें
इन प्रश्नों से आहत होकर कोई गीत नहीं लिखा

© Chirag Jain : चिराग़ जैन

 

याद आती है माँ

मकई की मोटी-मोटी रोटियाँ हथेलियों से गोल-गोल कैसे बन जाती थीं
बर्तन में गारे के बघारे ही बगैर दाल स्वाद कहाँ से ले आती थी
उस मासूम दाल को छप्पन मसालों से जो घिरी हुई पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

कभी-कभी किसी दिन मेरे कारण कोई कलह यूँ भी होता
पीट के मुझको लिपटा कर फिर ख़ुद रोती और मैं रोता
गलती भी मेरी होती, रूठता भी मैं ही और वो उल्टे समझाती थी
अपराधी भाव से उठा के आधी रात मुझे हाथों से अपने खिलाती थी
जब दौड़-धूप से दिन भर थका बिन खाए ही सो जाता हूँ मैं
याद आती है माँ

बाबूजी की तबियत ऐसी बिगड़ी, वो भी क्या दिन था भैया
आठ आने, चार आने गिन कर देखे, सौ में कम था दो रुपैया
हम पाँच बहन-भाई उस पे वो महंगाई, जाने कैसे उसने बचाए थे
ये भी तब था कि जब, मैंने जाने कब-कब, जेबों से पैसे चुराए थे
जब हार कर माह के बीच ही इन हाथों को फैलाता हूँ मैं
याद आती है माँ

उसके हाथों बोई हुई सब बेलें छप्पर तक जातीं
कहीं करेले, कहीं पे लौकी, कहीं तरोई इतराती
घर था छोटा सा पर, चारों ओर छोर पर, क्या हरियाली छाई थी
याद है मुझे भी मैंने उसके कहे से आंगन में तुलसी लगाई थी
जब बीवी की ज़िद्द पर घर के लिए कई कैक्टस लिए आता हूँ मैं
याद आती है माँ

उंगली और अंगूठे बीच दबाकर मेरे गालों को
मांग काढ़ती कई तरह कई शक्लें देती बालों को
सुबह जल्दी जागी हुई देर रात दौड़ती वो हरदम तत्पर मिलती थी
काँटों की बना के सूईं फटी हुई साड़ियों पे चांद-सितारे सिलती थी
जो विश्व की सुंदरतम औरतें उनको गिनते हुए पाता हूँ मैं
याद आती है माँ

दिखने में कुछ होने में कुछ दुनिया दोरंगी बेटा
सुख में अपने दुख में पराए ये साथी संगी बेटा
अनमने मन से मैं सुनी-अनसुनी कर मन ही मन झुंझलाता था
अपनी समझसे मैं ख़ुद को समझदार और चालाक ही पाता था
जब अपने ही जूते की कील से इन रस्तों पे लंगड़ाता हूँ मैं
याद आती है माँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं

कब से कई सवाल ओढ़कर बैठे हैं।

कोई नहीं मिला मुझको यूँ जब तक भटके मारे-मारे
मोती लगे छूटने जब से इस जीवन की झील किनारे
बदल गये हैं दृश्य अचानक बदल गया है हाल…
काग हंस की खाल ओढ़कर बैठे हैं।

गाता फिरता गली-गली मैं टूटन-उलझन-पीर तुम्हारी
सम्मोहन के आगे झुकते भवन, कँगूरे, महल, अटारी
दुनिया ने जो किये समर्पित सम्मानों के शाल…
सपनों के कंकाल ओढ़कर बैठे हैं।

आगे-पीछे नाच रही है बनकर हर उपलब्धि उजाला
जाने कितने भ्रम पाले है मेरा एक चाहने वाला
मैंने उसे बहुत समझाया, कहा कि भ्रम मत पाल…
फँसे नहीं हैं जाल ओढ़कर बैठे हैं।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

नीला नभ हो गया

नीला नभ हो गया अचानक श्यामल-श्यामल,
अहा! दूर तक घन ही घन आषाढ़ यही है,
नदिया से लेकर नयनों तक बाढ़ यही है।
गीला है मन से लेकर धरती का आंचल।

तभी घटी मन के भीतर के कुछ ऐसी घटना,
मरुथल के ऊपर से निकलीं श्याम घटाएं,
उन्हें उड़ा कर बहुत दूर ले गयीं हवाएं।
पूर्व नियोजित-सा था यह बादल का छँटना।

इसी तरह कितने आषाढ़ गये फिर आये,
मरुथल ने स्वागत के फिर फिर मंत्र पढ़े हैं,
मंत्र तिरस्कृत कर घन अपनी राह बढ़े हैं।
मरुथल खड़ा रहा अपनी बांहें फैलाये।

कोई कह दे मरुथल में बादल आयेंगे,
समय कटेगा,तब तक हम स्वागत -गायेंगे।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

 

ओस की बूँदें पड़ीं तो

ओस की बूँदें पड़ीं तो पत्तियाँ ख़ुश हो गईं
फूल कुछ ऐसे खिले कि टहनियाँ ख़ुश हो गईं

बेख़ुदी में दिन तेरे आने के यूँ ही गिन लिये
एक पल को यूँ लगा कि उंगलियाँ ख़ुश हो गईं

देखकर उसकी उदासी, अनमनी थीं वादियाँ
खिलखिलाकर वो हँसा तो वादियाँ ख़ुश हो गईं

आँसुओं में भीगे मेरे शब्द जैसे हँस पड़े
तुमने होठों से छुआ तो चिट्ठियाँ ख़ुश हो गईं

साहिलों पर दूर तक चुपचाप बिखरी थीं जहाँ
छोटे बच्चों ने चुनी तो सीपीयाँ ख़ुश हो गईं

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

गीत पावन हुआ

गीत में जब तुम्हारे नयन आ गये
आ गये दूर से श्याम घन आ गये
गीत सावन हुआ गीत पावन हुआ
जब महावर भरे दो चरण आ गये
गीत में आ गयी जब तुम्हारी छुअन
वो कुंवारा बदन वो कुंआंरी छुअन
प्रेम की एक पावन प्रथा हो गया
गीत मेरे लिए देवता हो गया

गीत में सब अधूरे सपन आ गये
कामनाओं के सारे हवन आ गये
डाल पर जो खिले झड़ गये सूखकर
गीत में वे अभागे सुमन आ गये
गीत में आ गयीं खो चुकीं तितलियाँ
तेज़ आँधी में उड़ती हुयी पत्तियाँ
इस तरह गीत मेरी कथा हो गया
गीत मेरे लिए देवता हो गया

जो न जग से कहे वे कथन आ गये
जो न रोये गये वे रुदन आ गये
गीत सत्यम् शिवम्‌ सुन्दरम हो गया
और आनंद के चंद क्षण आ गये
गीत है कल्पनाओं की अलकापुरी
गीत है कृष्ण की सुरमयी बाँसुरी
गीत का बस यही अर्थ था हो गया
गीत मेरे लिए देवता हो गया

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

सुनो तथागत!

सुनो तथागत!
राजमहल से मैं तुमको लेने आया हूँ,
मैं सिद्धार्थ मुझे पहचानो,
लाओ! मुझको वल्कल दे दो।

अरे! राजसी चिह्न कहाँ हैं?
मेरे केश कहाँ पर काटे,
वे राजा के आभूषण सब,
बोलो किसको किसको बाँटे?,

नित्य मृत्यु से बातें करती
कहती आकर ले जा मुझको,
राहुल के प्रश्नों में उलझी
यशोधरा ने भेजा मुझको।

अहो ! तुम्हारी दशा देखकर
मैं मन ही मन घबराया हूँ,
फिर भी यदि संभव हो पाये
तो उन प्रश्नों के हल दे दो।

मेरी छोटी सी यात्रा है
तुम विराट पथ के हो गामी,
मुझे मृत्यु देकर आये तुम
कैसे जरा मरण के स्वामी ?

मैं नतमस्तक हूं चरणों पर
बस मेरा इतना हित कर दो,
मेरी अभिलाषा हो पूरी
मुझको फिर से जीवित कर दो,

मैंने माना अजर अमर तुम
मैं पीडि़त जर्जर काया हूँ
लेकिन मौन न धारो ऐसे
वचनों से ही संबल दे दो।

उस निर्जन प्रांतर में फिर फिर
सारे प्रश्न देर तक बोले
सम्मुख था सिद्धार्थ बुद्ध ने
फिर भी अब तक नयन न खोले,

गहन मौन बहता था तन से
उसमें सारे प्रश्न घुल गये
दूर घने जंगल में आकर
राजमहल के नयन खुल गये,

लज्जित सा सिद्धार्थ कह रहा
मैं कुछ पत्र पुष्प लाया हूँ
मुझे न, लेकिन इन फूलों को
चरणों में अपने स्थल दे दो।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

मक़सद

मक़सद कुछ ज़िंदगी का ऊँचा बना के देख
संकल्प दृढ़ हो मन में, फिर क़दम बढ़ा के देख
तेरी ज़िंदगी भी रोशनी से पुरनूर होगी
किसी की चौखट पे तू भी दीपक जला के देख

© Ajay Sehgal : अजय सहगल

 

मैं तब से जानता हूँ

दर्पण में जब वो हर दिन, ख़ुद को नया-नया सा
अचरज से ताकती थी, मैं तब से जानता हूँ
सीधी सी बात पर भी, सीधे सहज ही उसने
मुझसे न बात की थी, मैं तब से जानता हूँ

जंगल में एक दानव, परियों को बांधता जब
करती थी प्रार्थना वो, युवराज आओ भी अब
किस्से-कहानियों में, इक चांद बैठी बुढ़िया
जब सूत कातती थी, मैं तब से जानता हूँ

चिट्ठाए बालों वाले सर को झुकाए नीचे
आँखों पे आए लट फिर, फिर फेंकती वो पीछे
आंगन में अपने घर के, लू की भरी दुपहरी
उपले वो पाथती थी, मैं तब से जानता हूँ

आँखों में मोटे-मोटे, सपनों की छोटी दुनिया
गोदी लिए वो फिरती, भाभी की नन्हीं मुनिया
मेरा ध्यान खींचने को, उसे डाँटकर रुलाती
और फिर दुलारती थी, मैं तब से जानता हूँ

प्रेम को ‘परेम’ लिखती, दिन को वो ‘दीन’ लिखती
जीना हुआ है ‘मुस्किल’, अब ‘तूम बीन’ लिखती
अशुद्धि में व्याकरण की, वो शुद्ध भाव मन के
कहते थे आपबीती, मैं तब से जानता हूँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

चाह में है और कोई

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई, चाह में है और कोई

साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनों भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई, नेह में है और कोई

स्वप्न के शव पर खड़े हो
मांग भरती हैं प्रथाएं
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रहीं कितनी व्यथाएं
ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई

जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
हास में है और कोई, प्यास में है और कोई

© Bharat Bhushan : भारत भूषण