संवेदनाएं 

लो गई संवेदनाएं जीत मुझसे, मिल सको तो,आ मिलो अब मीत मुझसे… है ज़रा सा ही सही पर प्रेम का आभास अब नीर नैनों का चला है भोगने हर प्यास अब तुम अगर कुछ कर सको मेरे लिए इतना करो इंच-भर सूरज अंधेरे की हथेली पर धरो रोशनी क्यों लग रही भयभीत मुझसे! कंठ तक अब आ गए हैं वेदना के स्वर प्रिये हम भटकते नींद के संग रात भर बिस्तर लिए आज आकुलता तुम्हारी बह रही है रक्त बन आ बसे हैं आज हममें क्या तुम्हारे प्राण-तन? हो रहा शायद तभी नवगीत मुझसे! हाय! कैसे तुम शिला से थे निभाते प्रीत तब मौन के द्वारे तिरस्कृत हो रहे थे मंत्र जब प्रार्थना की हद हुई, पत्थर नहीं नीरज हुआ उस घड़ी भी क्यों नहीं तुमसे विदा धीरज हुआ जब नहीं ईश्वर हुआ अभिनीत मुझसे! © Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला