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खो नहीं जाना

ढूंढना आसान है तुमको बहुत, पर
मीत मेरे, खो नहीं जाना कभी तुम !

पीर की पावन कमाई, चार आंसू , एक हिचकी
मंत्र बनकर प्रार्थनाएं मंदिरों के द्वार सिसकी
पर तुम्हारी याचनाओं को कहाँ से मान मिलता,
देवता अभिशप्त हैं ख़ुद, और है सामर्थ्य किसकी?

शिव नहीं जग में, प्रणय जो सत्य कर दे
माँगने हमको नहीं जाना कभी तुम !

तृप्ति से चूके हुए हैं, व्रत सभी, उपवास सारे
शूल पलकों से उठाए, फूल से तिनके बुहारे
इस तरह होती परीक्षा कामनाओं की यहां पर
घण्टियों में शोर है पर देवता बहरे हमारे

महमहाए मन, न आए हाथ कुछ भी
आस गीली बो नहीं जाना कभी तुम !

जग न समझेगा मग़र, हम जानते हैं मन हमारा
प्रीत है पूजा हमारी, मीत है भगवन हमारा
हम बरसते बादलों से क्यों कहें अपनी कहानी
और ही है प्यास अपनी, और है सावन हमारा

गुनगुनाएं सब, न समझे पीर कोई
गीत का मन हो नहीं जाना कभी तुम !

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

मैंने केवल गीत लिखे हैं

चाहे आखर बोकर पीर उगाने का आरोप लगा लो
दुनियावालों! सच पूछो तो मैंने केवल गीत लिखे हैं

जब-जब दो भीगे नैनों से काजल का अलगाव हुआ है
तब-तब मेरे ही शब्दों से तो पीड़ा का स्राव हुआ है
विष बुझते शूलों से जब-जब संकल्पों के धीरज हारे
तब-तब मेरे ही आंसू ने अरुणाए दो चरण पखारे

चाहे मुस्कानों पर मेरा कोई छन्द न सध पाया हो
मैंने आंसू अक्षर करके, पागल-पागल गीत लिखे हैं

कलम बनाकर कंधा मैंने रोते जीवन को बहलाया
अंधियारे की बांह मरोड़ी तब जाकर सूरज मुस्काया
पीड़ा को ही कंठ बनाया, लेखन एक चुनौती जानी
मेघों की अलकें टूटी हैं तब धरती पर बरसा पानी

चाहे मेरे तन से कोई उत्सव अंग न लग पाया हो
मैंने मन की हर खुरचन से विह्वल-विह्वल गीत लिखे हैं

मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब मन के बिना समर्पण देखा
दरपन-दरपन पानी देखा, फिर पानी में दरपन देखा
मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब दो आंखों के ख़्वाब मरे हैं
मैंने गीत लिखें हैं, जब-जब झंझावत से दीप डरे हैं

चाहे फूलों की बगिया में मेरा कुछ अनुदान नहीं है
मैंने स्याही गन्ध बनाकर आँचल-आँचल गीत लिखे हैं

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

तुमको खोकर क्या पाए मन?

अब गीतों में रस उतरा है,
अब कविता में मन पसरा है
हम सबकी पहचान हुए हैं,
हम सबके प्रतिमान हुए हैं
हम नदिया की रेंत हुए हैं,
हम पीड़ा के खेत हुए हैं
आंसू बोकर हरियाए मन,
तुमको खो कर क्या पाए मन?

जब हमने उल्लास मनाया
लोग नहीं मिल पाएं अपने
सबकी आँखों को भाते हैं
कुछ आँखों के टूटे सपने
होती है हर जगह उपेक्षित
मधुमासों की गीत, रुबाई
होकर बहुत विवश हमने भी
इन अधरों से पीड़ा गाई
अब टीसों पर मुस्काए मन
अब घावों के मन भाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

हमने भाग्य किसी का, अपनी
रेखाओं में लाख बसाया
प्रेम कथा को जीवन में बस
मिलना और बिछड़ना भाया
हमको तो बस जीना था, फिर
संग तुम्हारे मर जाना था
जीवन रेखा को अपने संग
इतनी दूर नहीं आना था
अब सांसों से उकताए मन
जीते-जीते मर जाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

सुनते हैं, तुम भाल किसी के
इक सूरज रोज़ उगाते हो
टांक चन्द्रमा, नरम हथेली
मेहंदी रोज़ सजाते हो
सुनते हैं, उस भाग्यवती की
मांग में तुम्हारा ही कुमकुम है
बीता कल है प्रेम हमारा
यादों में केवल हम-तुम हैं
उन यादों से भर आए मन
अक्सर उन पर ललचाए मन
तुमको खोकर क्या पाए मन?

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

लेखनी

लेखनी! पीड़ा-व्यथा की टेर पर मत मौन रहना
मौन का भी दंड होगा, जब कभी भी न्याय होगा

जब कभी बादल बिलखती प्यास से मोती चुराए
जब कभी दीपक अंधेरा देखकर बाती चुराए
जब न पिघले पत्थरों की आंख गीली आंच पाकर
जब कभी, कोई तिजोरी भूख से रोटी चुराए

दरपनों को सच दिखाना, मृत्यु को जीवट दिखाना
क्योंकि उस क्षण गीत गाना, शब्द का व्यवसाय होगा

एक धोबी फिर कभी जब, जानकी पर प्रश्न दागे
जब कभी धर्मान्ध लक्ष्मण, उर्मिला का नेह त्यागे
जब कभी इतिहास पढ़कर, कैकेयी को दोष दे जग
उर्वशी के भाग्य में जब श्राप का संताप जागे

तब तनिक साहस जुटाना, पीर को धीरज बंधाना
क्योंकि उस क्षण मुस्कुराना, शोक का पर्याय होगा

इक तुम्हारे बोलने से, कुछ अलग इतिहास होगा
उत्तरा होगी सुहागिन, कौरवों का नाश होगा
और यदि तुम रख न पाई द्रौपदी की लाज, फिर से
इस धरा का एक कोना, हस्तिनापुर आज होगा

ग़लतियों से सीख पाना, अब समय पर चेत जाना
क्योंकि इस क्षण डगमगाना, अंत का अध्याय होगा

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

सूनी सांझ

बहुत दिनों में आज मिली है
सांझ अकेली
साथ नहीं हो तुम!

पेड़ खड़े फैलाए बाँहें
लौट रहे घर को चरवाहे
यह गोधूली!
साथ नहीं हो तुम!

कुलबुल-कुलबुल नीड़-नीड़ में
चहचह-चहचह मीड़-मीड़ में
धुन अलबेली!
साथ नहीं हो तुम!

जागी-जागी सोई-सोई
पास पड़ी है खोई-खोई
निशा लजीली!
साथ नहीं हो तुम!

ऊँचे स्वर से गाते निर्झर
उमड़ी धारा जैसे मुझ पर
बीती, झेली
साथ नहीं हो तुम!

यह कैसी होनी-अनहोनी
पुतली-पुतली ऑंखमिचौनी
खुलकर खेली
साथ नहीं हो तुम!

© Shivmangal Singh ‘Suman’ : शिवमंगल सिंह ‘सुमन’

 

जाने तुमसे क्या छूटा है

जाने तुमसे क्या छूटा है, सबको साथ लिए जाते हो
जाने तुमपर क्या बीती है, मन को गीत किए जाते हो

जाने कब से आंखे भर के गीला चंदा देख रहे हो
इक टूटे तारे के आगे अब भी माथा टेक रहे हो
यादों पर मन टांक रहे हो, भावों का अतिरेक रहे हो
यूं लगता है अपने जैसे केवल तुम ही एक रहे हो

होठों पर नदिया रक्खी है, फिर भी प्यास पिए जाते हो
ख़ुद से अपनी एक न बनती, जग को मीत किए जाते

अनगढ़ पत्थर पूज रहे हो, शायद देवों से हारे हो
प्यासों के आगत पर ख़ुश हो, शायद नदिया के मारे हो
मुस्कानें बोते रहते हो, क्या उत्सव के हरकारे हो?
आंसू से रूठे रहते हो, क्या काजल के रखवारे हो?

मूल्य न जिनके पास ह्रदय का,उनपर प्राण दिए जाते हो
जिसने मन पर घाव लगाया, उससे प्रीत किए जाते हो

मोल रहे हो पीर पराई, इतने आंसू रो पाओगे?
दुनिया को ठुकराने वाले, क्या दुनिया के हो पाओगे?
इक मीठे चुम्बन के दम पर सारी पीड़ा धो पाओगे?
क्या लगता है, सब देकर भी, जो खोया था, वो पाओगे?

साँसों से अनुबंध किया है, इक संत्रास जिए जाते हो
दुनिया धारा की अनुयायी, तुम विपरीत किए जाते हो

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

मेरी नींद चुराने वाले

मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए
पूनम वाला चांद तुझे भी सारी-सारी रात जगाए

तुझे अकेले तन से अपने, बड़ी लगे अपनी ही शैय्या
चित्र रचे वह जिसमें, चीरहरण करता हो कृष्ण-कन्हैया
बार-बार आँचल सम्भालते, तू रह-रह मन में झुंझलाए
कभी घटा-सी घिरे नयन में, कभी-कभी फागुन बौराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

बरबस तेरी दृष्टि चुरा लें, कंगनी से कपोत के जोड़े
पहले तो तोड़े गुलाब तू, फिर उसकी पंखुडियाँ तोड़े
होठ थकें ‘हाँ’ कहने में भी, जब कोई आवाज़ लगाए
चुभ-चुभ जाए सुई हाथ में, धागा उलझ-उलझ रह जाए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

बेसुध बैठ कहीं धरती पर, तू हस्ताक्षर करे किसी के
नए-नए संबोधन सोचे, डरी-डरी पहली पाती के
जिय बिनु देह नदी बिनु वारी, तेरा रोम-रोम दुहराए
ईश्वर करे हृदय में तेरे, कभी कोई सपना अँकुराए
मेरी नींद चुराने वाले, जा तुझको भी नींद न आए

© Bharat Bhushan : भारत भूषण