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ज़िंदगी मुश्क़िल से आती है

क़जा आती है पल– पल, ज़िंदगी मुश्क़िल से आती है
अगर हँसना भी चाहें तो, हँसी मुश्क़िल से आती है
उसी का नाम होठों पर उसी को है दुआ दिल से
जिसे शायद हमारी याद भी मुश्क़िल से आती है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

यो-यो

गलियारे में खेल रहे
उछल-कूद करते
लड़ते-भिड़ते
बच्चे ही तो हैं हम

अनागत की भाँप कर परछाई
भौचक
सहम जाते हैं

दौड़ पड़ते हैं
मुँह छिपाने को
अतीत की गोद में
करते हैं स्मृतियों का स्तनपान
चेहरे और चेहरे और चेहरे
घटनाएँ, दुर्घटनाएँ
बोल….
अघा कर
फिर उतर आते हैं सड़क पर
फिर वही
सिर पर मण्डराते
अनागत के साए
फिर वही
अतीत की गोद में लुक-छिप रहना
और जाएँ भी कहाँ?

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

कैसट

बीते हुए दिनों की कैसट
जाने कौन चला देता है
ठगा-ठगा सा देख रहा हूँ!

कोहरा ढके ढलान
दहाड़ते जल-प्रपात
जंगल और खलिहान
हाट
त्यौहार और मेले
सम्पर्कों की भीड़
किताबें
यात्रा
पिकनिक
स्कूल को जाते बच्चे
छैला बाबू
माँ, बहिनें, भाई
बेकार बाप
सठियाया बुङ्ढा
गीतों का दीवाना

ये सब
मैं ही हूँ
विश्वास न होता
ठगा-ठगा सा देख रहा हूँ

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

स्मृतियाँ

अधखुली ऑंखों में
थिरकती नन्हीं पुतलियाँ
प्रतिबिम्बों का भार ढो रही हैं
पश्चिम के दरवाज़े पर
प्रतीक्षा से ऊबी
स्मृतियाँ
सिसक-सिकक
रो रही हैं।

– आचार्य महाप्रज्ञ

 

ना वो बचपन रहा

ना वो सावन रहा
ना वो फागुन रहा
ना वो आँखों में सपने सलौने रहे
ना वो आंगन रहा
ना वो बचपन रहा
ना वो माटी के कच्चे खिलौने रहे

है ज़माने की बदली हुई दास्तां
ऐसे मौसम में जायें तो जायें कहाँ
हर तरफ आग के शोले दहके हुए
दिख रही है हमें बस ख़िज़ाँ ही ख़िज़ाँ
ना वो मधुबन रहा
ना वो गुलशन रहा
ना वो मख़मल के कोमल बिछौने रहे

मन की बंसी का सुर आज सहमा हुआ
गुनगुनाता पपीहा भी तनहा हुआ
है ज़माने की हर शय बदलती हुई
भीड़ ज्यों-ज्यों बढ़ी मन अकेला हुआ
ना वो बस्ती रही
ना वो मस्ती रही
ना वो पहले से अब जादू-टोने रहे

आज सावन के झूले नहीं दीखते
फूल सरसों के फूले नहीं दीखते
धनिया, होरी के संग जो जिये उम्र भर
लोग वो बिसरे-भूले नहीं दीखते
ना वो पनघट रहा
ना वो घूंघट रहा
ना रंगोली, ना डोली, ना गौने रहे

फट रहे हैं खिलौनों में बच्चों के, बम
बढ़ रहे हैं धरा पर सितम ही सितम
हर ख़ुशी को मिला आज वनवास है
आँसुओं से भरी भीगी पलकें हैं नम
ना रही वो हँसी
ना रही वो ख़ुशी
ना वो महके हुए दिल के कोने रहे

ना वो दादी औ’ नानी की बानी रही
मीठी बानी की ना वो कहानी रही
आजकल के बदलते नये दौर में
ना वो सपनों में परियों की रानी रही
ना वो पिचकारियाँ
ना वो किलकारियाँ
ना वो माथे पे काले दिठौने रहे

© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल

 

 

सपनों का कर्ज

 

कल रात मचाया शोर बहुत
जाने कैसे सन्नाटे ने,
कल रात जगाया बहुत देर
यादों के सैर सपाटे ने,
कल रात सदा गाने वाली
कोयल मुँडेर पर रोयी है,
कल रात गगन ने रो रो कर
यह सारी धरती धोयी है,
कल रात हमारे आस पास, इक भीड़ भरा वीराना था,
कल रात उसे दुल्हन बनकर दिल की दुनिया से जाना था

कल रात न जाने क्या टूटा
आवाज हुयी सीधे दिल पर,
कलरात लिपटकर सिसक पड़ा
मेरे गीतों का हर अक्षर
कल रात अँधेरों ने ढोयी,
पालकी हमारे सपने की,
कल रात सुनायी गयी सजा
चाँदनी रात में तपने की,
कल रात हमारी आँखों को सपनों का कर्ज चुकाना था,
कल रात उसे दुल्हन बनकर दिल की दुनिया से जाना था

कल रात नयन की नदिया में
सपनों के बादल डूब गये,
कल रात हमारे समझौते
हम को समझा कर ऊब गये,
कल रात लुटे हम कुछ ऐसे
ज्यों रातों रात फकीर हुए
कल रात हुआ कुछ ऐसा, हम
तुलसी से आज कबीर हुये,
कल रात गयी,अब बात गयी,यह वक्त कभी तो आना था
कलरात उसे दुलहन बनकर दिल की दुनिया से जाना था

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल