Tag Archives: romantic poetry

उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

जितनी दूर नयन से सपना
जितनी दूर अधर से हँसना
बिछुए जितनी दूर कुँआरे पाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पुरवा का झोंका तेरा घुँघरू
हर बादल की रिमझिम तेरी भावना
हर सावन की बूंद तुम्हारी ही व्यथा
हर कोयल की कूक तुम्हारी कल्पना

जितनी दूर ख़ुशी हर ग़म से
जितनी दूर साज सरगम से
जितनी दूर पात पतझर का छाँव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

हर पत्ती में तेरा हरियाला बदन
हर कलिका के मन में तेरी लालिमा
हर डाली में तेरे तन की झाइयाँ
हर मंदिर में तेरी ही आराधना

जितनी दूर प्यास पनघट से
जितनी दूर रूप घूंघट से
गागर जितनी दूर लाज की बाँह से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

कैसे हो तुम, क्या हो, कैसे मैं कहूँ
तुमसे दूर अपरिचित फिर भी प्रीत है
है इतना मालूम की तुम हर वस्तु में
रहते जैसे मानस् में संगीत है

जितनी दूर लहर हर तट से
जितनी दूर शोख़ियाँ लट से
जितनी दूर किनारा टूटी नाव से
उतनी दूर पिया तू मेरे गाँव से

© Kunwar Bechain : कुँवर बेचैन

 

मील का पत्थर उदास है

मंज़िल का दर्द क़ल्ब में रहकर उदास है
बरसों से एक मील का पत्थर उदास है

मैं सोचकर उदास हूँ है रास्ता तवील
तू मंज़िलों के पास भी जाकर उदास है

यादों के कैनवास को अर्जुन नहीं मिला
रंगों की द्रोपदी का स्वयंवर उदास है

परछाइयों को देख सिसकती है चांदनी
ऊँचाइयों को देख समंदर उदास है

सपनों का ये लिबास नज़र से उतार तो
जो शाद दिख रहा है वही घर उदास है

जितनी बढ़ेगी तीरगी चमकेगा और भी
जुगनू को देख रात का पैकर उदास है

वो बात ही कुछ ऐसी ‘चरन’ कह गया मगर
सुनकर उदास मैं हूँ वो कहकर उदास है

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

खुली खिड़की-सी लड़की

एक खुली खिड़की-सी लड़की
देखी मस्त नदी-सी लड़की

ख़ुशबू की चूनर ओढ़े थी
फूल बदन तितली-सी लड़की

मैं बच्चे-सा खोया उसमें
वो थी चांदपरी-सी लड़की

जितना बाँचूँ उतना कम है
थी ऐसी चिट्ठी-सी लड़की

काश कभी फिर से मिल जाए
वो खोई-खोई-सी लड़की

© Naresh Shandilya : नरेश शांडिल्य

 

मैं तब से जानता हूँ

दर्पण में जब वो हर दिन, ख़ुद को नया-नया सा
अचरज से ताकती थी, मैं तब से जानता हूँ
सीधी सी बात पर भी, सीधे सहज ही उसने
मुझसे न बात की थी, मैं तब से जानता हूँ

जंगल में एक दानव, परियों को बांधता जब
करती थी प्रार्थना वो, युवराज आओ भी अब
किस्से-कहानियों में, इक चांद बैठी बुढ़िया
जब सूत कातती थी, मैं तब से जानता हूँ

चिट्ठाए बालों वाले सर को झुकाए नीचे
आँखों पे आए लट फिर, फिर फेंकती वो पीछे
आंगन में अपने घर के, लू की भरी दुपहरी
उपले वो पाथती थी, मैं तब से जानता हूँ

आँखों में मोटे-मोटे, सपनों की छोटी दुनिया
गोदी लिए वो फिरती, भाभी की नन्हीं मुनिया
मेरा ध्यान खींचने को, उसे डाँटकर रुलाती
और फिर दुलारती थी, मैं तब से जानता हूँ

प्रेम को ‘परेम’ लिखती, दिन को वो ‘दीन’ लिखती
जीना हुआ है ‘मुस्किल’, अब ‘तूम बीन’ लिखती
अशुद्धि में व्याकरण की, वो शुद्ध भाव मन के
कहते थे आपबीती, मैं तब से जानता हूँ

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

बूंदों की भाषा

खिड़की में से आती धीमी हवा
और ठण्डी फुहार
दिलाती हैं
तुम्हारी कमी का अहसास
और भी तेज़ी से

चाहता है मन,
कि भीगें इस फुहार में
साथ-साथ…
और चलते रहें कहीं दूर
और दूर….

या फिर घर में बैठे रहें
साथ-साथ,
और ढेर सारी बातें करें
धीमे-धीमे!

लेकिन केवल ख़्याल ही हैं ये
मैं बैठी हूँ अकेली
खिड़की से देखती
इस फुहार को
और सोचती हुई
तुम्हारे बारे में
तुम्हारी खिड़की के बाहर भी
बरस रही होंगी बूंदें
उनकी भाषा
तुम समझ पा रहे हो?
वो कह रही हैं जो कुछ
तुम सुन रहे हो ना?

…या फिर
भीगने के डर से
खिड़की बन्द किए
सो रहे हो
आराम से?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

चाह में है और कोई

ये असंगति जिन्दगी के द्वार सौ-सौ बार रोई
बांह में है और कोई, चाह में है और कोई

साँप के आलिंगनों में
मौन चन्दन तन पड़े हैं
सेज के सपनों भरे कुछ
फूल मुर्दों पर चढ़े हैं
ये विषमता भावना ने सिसकियाँ भरते समोई
देह में है और कोई, नेह में है और कोई

स्वप्न के शव पर खड़े हो
मांग भरती हैं प्रथाएं
कंगनों से तोड़ हीरा
खा रहीं कितनी व्यथाएं
ये कथाएं उग रही हैं नागफन जैसी अबोई
सृष्टि में है और कोई, दृष्टि में है और कोई

जो समर्पण ही नहीं हैं
वे समर्पण भी हुए हैं
देह सब जूठी पड़ी है
प्राण फिर भी अनछुए हैं
ये विकलता हर अधर ने कंठ के नीचे सँजोई
हास में है और कोई, प्यास में है और कोई

© Bharat Bhushan : भारत भूषण

 

मुझे मेरे ही भीतर से उठाकर ले गया कोई

मुझे मेरे ही भीतर से उठाकर ले गया कोई
मैं सोया था कहीं बेसुध जगाकर ले गया कोई

मैं रहना चाहता था जिस्म की इस क़ैद में लेकिन
मुझे ख़ुद क़ैद से मेरी छुड़ाकर ले गया कोई

गए हैं दूर वो जबसे भटकता हूँ अंधेरों में
नज़र से नूर को मेरे चुराकर ले गया कोई

भरी महफ़िल समझती थी मैं उसके साथ हूँ लेकिन
मुझे नज़रों ही नज़रों में छुपाकर ले गया कोई

नदी-सा बेख़बर अपनी ही कलकल में मगन था मैं
समुन्दर की तरफ़ मुझको बहाकर ले गया कोई

मैं जैसा भी हूँ, वैसा अपने शेरों में धड़कता हूँ
मुझे ग़ज़लों में मेरी गुनगुनाकर ले गया कोई

भटकता फिर रहा था बिन पते के ख़त सरीखा मैं
मेरा असली पता मुझको बताकर ले गया कोई

© Praveen Shukla : प्रवीण शुक्ल

 

इक आम-सी लड़की थी

जब गरजे तब बरसे नहीं -उस शाम-सी लड़की थी
उहापोह के निकले हुए परिणाम-सी लड़की थी
गीत मैं जिसके गाता हूँ इक आम-सी लड़की थी

परी न चंदा, मृगनयनी, ना रूप की राजकुमारी-सी
कलकल नदिया, ना ही अप्सरा, ना सुंदर फुलवारी-सी
कलाकार की कल्पित रचना, मैना ना अमराई की
मस्त ठुमकते सावन जैसी, ना चंचल पुरवाई-सी
लीपे आंगन पर मांडे चितराम-सी लड़की थी

दो के पहाड़े जैसी सीधी, एक से दस तक गिनती-सी
पहली कक्षा के बच्चे की विद्या माँ से विनती-सी
चूल्हा, चौका, झाड़ू, बर्तन, बचपन से ही बोझ लिए
चित्रकथा की पुस्तक थी वो माँ के हाथों छिनती-सी
आधे वाक्य के आगे पूर्णविराम-सी लड़की थी

मोहल्ले की हलचल पर वो करती नहीं थी परिचर्चा
मोर-सा नर्तन, भँवरे गुनगुन, तितली-सी ना दिनचर्या
रजनीगंधा, जूही, केतकी, अनुकंपा, ना जिज्ञासा
श्वेता, मुक्ता, युक्ता, ना ही क्षमा, विभा, ऐश्वर्या
सीता, गीता, मीरा जैसे नाम-सी लड़की थी

गंधों का ना मादकता, उत्तेजक अहसास जगे
भाव-भंगिमा नहीं कि ऐसी कंठ सुखाती प्यास जगे
ताजमहल पर रुके चांद का चित्र न दीखा उसमें तो
मैं क्या बोलूँ देख के उसको मुझमें क्या आभास जगे
तेज़ बुख़ार के बाद हुए आराम-सी लड़की थी

© Ramesh Sharma : रमेश शर्मा

 

कन्या एक कुँवारी थी

कन्या एक कुँवारी थी
छू लो तो चिंगारी थी
वैसे तेज़ कटारी थी
लेकिन मन की प्यारी थी
सखियों से बतियाती थी
शोहदों से घबराती थी
मुझसे कुछ शर्माती थी
बस से कॉलेज आती थी
गोरी नर्म रुई थी वो
मानो छुईमुई थी वो
लड़की इक जादुई थी वो
बिल्कुल ऊई-ऊई थी वो

अंतर्मन डिस्क्लोज किया
इक दिन उसे प्रपोज़ किया
वो पहले नाराज़ हुई
तबीयत-सी नासाज़ हुई
फिर बोली ये ठीक नहीं
अपनी ऐसी लीक नहीं
पढ़ने-लिखने के दिन हैं
आगे बढ़ने के दिन है
ये बातें फिर कर लेंगे
इश्क़-मुहब्बत पढ़ लेंगे
अभी न मन को हीट करो
एमए तो कंप्लीट करो

उसने यूँ रिस्पांड किया
प्रोपोज़ल पोस्टपोंड किया
हमसे हिम्मत नहीं हरी
मन में ऊर्जा नई भरी
रात-रात भर पढ़-पढ़ के
नई इबारत गढ़-गढ़ के
ऐसा सबको शॉक दिया
मैंने कॉलेज टॉप किया

अब तो मूड सुहाना था
अब उसने मन जाना था
लेकिन राग पुराना था
फिर इक नया बहाना था
जॉब करो कोई ढंग की
फिर स्टेटस की नौटंकी
कभी कास्ट का पेंच फँसा
कभी बाप को नहीं जँचा

थककर रोज़ झमेले में
नौचंदी के मेले में
इक दिन जी कैड़ा करके
कहा उसे यूँ जाकर के
जो कह दोगी कर लूंगा
कहो हिमालय चढ़ लूंगा
लेकिन किलियर बात करो
ऐसे ना जज़्बात हरो
या तो अब तुम हाँ कर दो
या फिर साफ़ मना कर दो

सुनकर कन्या मौन हुई
हर चालाकी गौण हुई
तभी नया छल कर लाई
आँख में आँसू भर लाई
हिम्मत को कर ढेर गई
प्रण पर आँसू फेर गई

पुनः प्रपोज़ल बीट हुआ
नखरा नया रिपीट हुआ
थोड़ा-सा तो वेट करो
पहले पतला पेट करो
जॉइन कोई जिम कर लो
तोंद ज़रा-सी डिम कर लो
खुश्बू-सी खिल जाऊंगी
मैं तुमको मिल जाऊंगी

तीन साल का वादा कर
निज क्षमता से ज़्यादा कर
हीरो जैसी बॉडी से
डैशिंग वाले रोडी से
बेहतर फिजिक बना ना लूँ
छः-छः पैक बना ना लूँ
तुझको नहीं सताऊंगा
सूरत नहीं दिखाऊंगा

रात और दिन श्रम करके
खाना-पीना कम करके
रूखी-सूखी खा कर के
सरपट दौड़ लगा करके
सोने सी काया कर ली
फिर मन में ऊर्जा भर ली
उसे ढूंढने निकल पड़ा
किन्तु प्रेम में खलल पड़ा

किसी और के छल्ले में
चुन्नी बांध पुछल्ले में
वो जूही की कली गई
किसी और की गली गई
शादी करके चली गई
अपनी क़िस्मत छली गई

थका-थका हारा-हारा
मैं बदकिस्मत बेचारा
पल में दुनिया घूम लिया
हर फंदे पर लूम लिया
अपने आँसू पोछूँगा
कभी मिली तो पूछूंगा
क्यों मेरा दिल तोड़ गई
प्यार जता कर छोड़ गई

कुछ दिन बाद दिखाई दी
वो आवाज़ सुनाई दी
छोड़ा था नौचंदी में
पाई सब्ज़ी मंडी में
कैसा घूमा लूप सुनो
उसका अनुपम रूप सुनो
वो जो एक छरहरी थी
कंचन देह सुनहरी थी
अब दो की महतारी थी
तीजे की तैयारी थी
फूले-फूले गाल हुए
उलझे-बिखरे बाल हुए
इन बेढंगे हालों ने
दिल के फूटे छालों ने
सपनों में विष घोला था
एक हाथ में झोला था
एक हाथ में मूली थी
खुद भी फूली फूली थी
सब सुंदरता लूली थी
आशा फाँसी झूली थी

वो जो चहका करती थी
हर पल महका करती थी
हिरनी बनी विचरती थी
खुल्ला ख़र्चा करती थी
वो कितनी लिजलिजी मिली
बारगेनिंग में बिजी मिली

धड़कन थाम निराशा से
गिरकर धाम हताशा से
विधिना के ये खेल कड़े
देख रहा था खड़े खड़े
तभी अचानक सधे हुए
दो बच्चों से लदे हुए
चिकचिक से कुछ थके हुए
बाल वाल भी पके हुए
इक अंकल जी प्रकट हुए
दर्शन इतने विकट हुए
बावन इंची कमरा था
इसी कली का भ्रमरा था
तूफानों ने पाला था
मुझसे ज़्यादा काला था
मुझसे अधिक उदास था वो
केवल दसवीं पास था वो
ठगा हुआ सा ठिठक गया
खून के आंसू छिटक गया
रानी साथ मदारी के
फूटे भाग बिचारी के
घूरे मेला लूट गए
तितली के पर टूट गए
रचा स्वयंवर वीरों का
मंडप मांडा ज़ीरो का
गरम तवे पर फैल गई
किस खूसट की गैल गई
बिना मिले वापस आया
कई दिनों तक पछताया

अब भी अक्सर रातों में
कुछ गहरे जज़्बातों में
पिछली यादें ढोता हूँ
सबसे छुपकर रोता हूँ
मुझमें क्या कम था ईश्वर
किस्मत में ग़म था ईश्वर
भाग्य इसी को कहते हैं
अब भी आँसू बहते हैं

© Chirag Jain : चिराग़ जैन