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भाषा

तुमने कहा था-
”ख़त्म हो चुकी है अब
संवाद की स्थिति
और नहीं हो सकती
कोई बात!”

कारण पूछने पर
कुछ सोच कर
आरोप लगाया था तुमने
मुझ पर ही!

और मैंने भी सोचा था
कि हो भी कैसे सकती है बात
दो भिन्न भाषा-भाषियों में

हाँ!
…तुम्हारी भाषा
देह की थी
और मेरी
मन की!

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

बूंदों की भाषा

खिड़की में से आती धीमी हवा
और ठण्डी फुहार
दिलाती हैं
तुम्हारी कमी का अहसास
और भी तेज़ी से

चाहता है मन,
कि भीगें इस फुहार में
साथ-साथ…
और चलते रहें कहीं दूर
और दूर….

या फिर घर में बैठे रहें
साथ-साथ,
और ढेर सारी बातें करें
धीमे-धीमे!

लेकिन केवल ख़्याल ही हैं ये
मैं बैठी हूँ अकेली
खिड़की से देखती
इस फुहार को
और सोचती हुई
तुम्हारे बारे में
तुम्हारी खिड़की के बाहर भी
बरस रही होंगी बूंदें
उनकी भाषा
तुम समझ पा रहे हो?
वो कह रही हैं जो कुछ
तुम सुन रहे हो ना?

…या फिर
भीगने के डर से
खिड़की बन्द किए
सो रहे हो
आराम से?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

मरणधर्मा सम्बन्ध

सम्बन्धों की ऊष्मा लिए
मन को मन से जोड़े
चले थे हम जिस यात्रा पर
नहीं हो पाई है
वह अभी पूरी

सम्भवत:
लक्ष्य ही नहीं
निर्धारित हो पाया सही
या फिर चलने लगे थे
विपरीत दिशा में
हम ही

हमें तो जाना था
मन से आत्मा की ओर
लेकिन लौटे हम देह पर
और देह का तो एक ही धर्म है,
कि वह मरणधर्मा है।

तो उस पर आधारित सम्बन्ध
रह भी कैसे सकता था जीवित
सदा के लिए?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग