युग-युग

तुम अजन्मे, हम अमर युग-युग रहे हैं श्वास के अभिशाप दोनों ने सहे हैं मुक्त शब्दों को अधर से बिन किये तुम औ प्रलय का गीत नैनों में लिए हम अनलिखे तुम और हम भी अनकहे हैं शब्द के संताप दोनों ने सहे हैं तुम विवशता से बंधे तटबन्ध जैसे हम निभाते धार के अनुबंध जैसे तुम अडिग, हम छू किनारों को बहे हैं कूल के परिमाप दोनों ने सहे हैं दे सके ना तुम हमें वर कोई ऐसा देव! कर पाता हमें जो एक जैसा देवता बन तुम, मनुज हो हम दहे हैं भाग्य के परिताप दोनों ने सहे हैं © Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला