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इतिहास

आदमी मर गया कभी का
पीढ़ियाँ ज़िन्दा हैं
सूरज बुझ जाएगा एक दिन
पर आकाश अमर है
सूरज के बिना
वह आकाश कैसा होगा!

Vishnu Prabhakar : विष्णु प्रभाकर

 

वर्तमान उज्ज्वल करना है

विस्मृत कर दो कुछ अतीत को, दूर कल्पना को भी छोड़ो
सोचो दो क्षण गहराई से, आज हमें अब क्या करना है

वर्तमान की उज्ज्वलता से भूत चमकता भावी बनता
इसीलिए सह-घोष यही हो, ‘वर्तमान उज्ज्वल करना है’

हमने जो गौरव पाया वह अनुशासन से ही पाया है
जीवन को अनुशासित रखकर, वर्तमान उज्ज्वल करना है

अनुशासन का संजीवन यह, दृढ़-संचित विश्वास रहा है
आज आपसी विश्वासों से, वर्तमान उज्ज्वल करना है

क्षेत्र-काल को द्रव्य भाव को समझ चले वह चल सकता है
सिर्फ बदल परिवर्तनीय को, वर्तमान उज्ज्वल करना है

अपनी भूलों के दर्शन स्वीकृति परिमार्जन में जो क्षम है
वह जीवित, जीवित रह कर ही, वर्तमान उज्ज्वल करना है

औरों के गुण-दर्शन स्वीकृति अपनाने में जो तत्पर है
वह जीवित, जीवित रह कर ही, वर्तमान उज्ज्वल करना है

दर्शक दर्शक ही रह जाते, हम उत्सव का स्पर्श करेंगे
परम साध्य की परम सिध्दि यह, वर्तमान उज्ज्वल करना है

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

सपने गीत बने

किसे पता है? अक्सर मेरे सपने गीत बने।

कुछ सपने मेलोँ जैसे हैँ कोई है सूने का सपना।
कभी कभी क्षमता से ऊँचा इन्द्रधनुष छूने का सपना।
जैसे हारी हुयी थकन का सपना जीत बने।

कमरे की खिड़की का परदा मैँने अरसे बाद हटाया,
खिड़की से चिपका बैठा था कब से पागल चाँद लजाया।
मै भी चाहूँ मेरा भी कुछ सुखद अतीत बने।

अगर गीत बनवाना हो तो तुम भी अपने सपने देना,
मुझे रात दिन हँसने रोने लिखने और तड़पने देना।
बस सपने ही दिये सभी ने जो भी मीत बने।

© Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल

 

विकास

एक कमरा था
जिसमें मैं रहता था
माँ-बाप के संग
घर बड़ा था
इसलिए इस कमी को
पूरा करने के लिए
मेहमान बुला लेते थे हम!

फिर विकास का फैलाव आया
विकास उस कमरे में नहीं समा पाया
जो चादर पूरे परिवार के लिए बड़ी पड़ती थी
उस चादर से बड़े हो गए
हमारे हर एक के पाँव
लोग झूठ कहते हैं
कि दीवारों में दरारें पड़ती हैं
हक़ीक़त यही
कि जब दरारें पड़ती हैं
तब दीवारें बनती हैं!
पहले हम सब लोग दीवारों के बीच में रहते थे
अब हमारे बीच में दीवारें आ गईं
यह समृध्दि मुझे पता नहीं कहाँ पहुँचा गई
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं

फिर हमने बना लिया एक मकान
एक कमरा अपने लिए
एक-एक कमरा बच्चों के लिए
एक वो छोटा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए जो मेरे आगे हाथ जोड़ते थे
एक वो अन्दर बड़ा-सा ड्राइंगरूम
उन लोगों के लिए
जिनके आगे मैं हाथ जोड़ता हूँ

पहले मैं फुसफुसाता था
तो घर के लोग जाग जाते थे
मैं करवट भी बदलता था
तो घर के लोग सो नहीं पाते थे
और अब!
जिन दरारों की वहज से दीवारें बनी थीं
उन दीवारों में भी दरारें पड़ गई हैं।
अब मैं चीख़ता हूँ
तो बग़ल के कमरे से
ठहाके की आवाज़ सुनाई देती है
और मैं सोच नहीं पाता हूँ
कि मेरी चीख़ की वजह से
वहाँ ठहाके लग रहे हैं
या उन ठहाकों की वजह से
मैं चीख रहा हूँ!

आदमी पहुँच गया हैं चांद तक
पहुँचना चाहता है मंगल तक
पर नहीं पहुँच पाता सगे भाई के दरवाज़े तक
अब हमारा पता तो एक रहता है
पर हमें एक-दूसरे का पता नहीं रहता

और आज मैं सोचता हूँ
जिस समृध्दि की ऊँचाई पर मैं बैठा हूँ
उसके लिए मैंने कितनी बड़ी खोदी हैं खाइयाँ

अब मुझे अपने बाप की बेटी से
अपनी बेटी अच्छी लगती है
अब मुझे अपने बाप के बेटे से
अपना बेटा अच्छा लगता है
पहले मैं माँ-बाप के साथ रहता था
अब माँ-बाप मेरे साथ रहते हैं
अब मेरा बेटा भी कमा रहा है
कल मुझे उसके साथ रहना पड़ेगा
और हक़ीक़त यही है दोस्तों
तमाचा मैंने मारा है
तमाचा मुझे खाना भी पड़ेगा

© Surendra Sharma : सुरेंद्र शर्मा

 

गुरु और शिष्य

गुरु ने चेले से कहा लेटे-लेटे-
कि उठ के पता लगाओ
बरसात हो रही है या नहीं बेटे
तो चेले ने कहा-
ये बिल्ली अभी-अभी बहार से आई है
इसके ऊपर हाथ फेर कर देख लीजिये
अगर भीगी हुई हो तो
बरसात हो रही है समझ लीजिये।

गुरु ने दूसरा काम कहा
कि सोने का समय हुआ
ज़रा दीया तो बुझा दे बचुआ
बचुआ बोला-
आप आंखें बंद कर लीजिये
दीया बुझ गया समझ लीजिये।

अंत में गुरु ने कहा हारकर
कि उठ किवाड़ तो बंद कर
तो शिष्य ने कहा कि गुरुवर
थोड़ा तो न्याय कीजिये
दो काम मैंने किये हैं
एक काम तो आप भी कर दीजिये।

© Aash Karan Atal : आशकरण अटल

 

दधीचि

ये लो
सम्भालो मेरी अस्थियाँ
कर लो वज्र का निर्माण
नहीं रह पाओगे नपुंसक
जो भी आसुरी है
लग जाएगा ठिकाने
सूत्रपात होगा
नए कल्पान्तर का!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

ज़माना देखता रह जाएगा

सिर्फ़ हैरत से ज़माना देखता रह जाएगा
बाद मरने के कहाँ किसका पता रह जाएगा

अपने-अपने हौसले की बात सब करते रहे
ये मगर किसको पता था सब धरा रह जाएगा

तुम सियासत को हसीं सपना बना लोगे अगर
फिर तुम्हें जो भी दिखेगा क्या नया रह जाएगा

मंज़िलों की जुस्तजू में बढ़ रहा है हर कोई
मंज़िलें गर मिल गईं तो बाक़ी क्या रह जाएगा

‘मीत’ जब पहचान लोगे दर्द दिल के घाव का
फिर कहाँ दोनों में कोई फ़ासला रह जाएगा

© Anil Verma Meet : अनिल वर्मा ‘मीत’

 

कवि

एक विचार
बीज रूप में
गिरा उस कोख में
गर्भ ठहरा
मथती रही अभिव्यक्ति
उसे जन्म लेने के लिए।
न शब्द था संग
न अर्थ थे
थे केवल कोरे विचार
बिलख रही कोख में
बन्धया अभिव्यक्ति
अर्थ पाने के लिए।
गर्भवती माँ की पीड़ा
आज समझ पाया था
एक गर्भ धारक कवि…!

© Ashish Kumar Anshu : आशीष कुमार ‘अंशु’

 

खग उड़ते रहना जीवन भर

खग! उड़ते रहना जीवन भर!
भूल गया है तू अपना पथ
और नहीं पंखों में भी गति
किंतु लौटना पीछे पथ पर, अरे मौत से भी है बदतर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

मत डर प्रलय-झकोरों से तू
बढ़ आशा-हलकोरों से तू
क्षण में यह अरि-दल मिट जाएगा तेरे पंखों से पिसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

यदि तू लौट पड़ेगा थक कर
अंधड़ काल-बवंडर से डर
प्यार तुझे करने वाले ही, देखेंगे तुझको हँस-हँसकर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

और मिट गया चलते-चलते
मंज़िल-पथ तय करते-करते
तेरी ख़ाक़ चढ़ाएगा जग उन्नत भाल और आँखों पर।
खग! उड़ते रहना जीवन भर!

© Gopaldas Neeraj : गोपालदास ‘नीरज’