इन्ही आँखों में सागर है

इन्ही आँखों में सागर है किनारे डूब जाते हैं
कहें कुछ होंठ नाज़ुक से मगर कुछ कह न पाते हैं
बड़ी है मोहिनी सूरत निगाहें बाँध लेती है
रहा अब दिल नहीं बस में क़दम तक लड़खड़ाते हैं

ये तेरी झील-सी आँखें नया एक ख्वाब है इनमें
बड़े नाज़ुक ये लब तेरे नया एक आब है इनमें
लहर खातीं तेरी जुल्फें सभी हैं आज नागिन सी
नशीली ये अदाएँ हैं नूर-ए-महताब है इनमें

बहुत कुछ कह रहीं आँखें ये लब भी थरथराते हैं
चमकता चांद पर चन्दन नगीने आब पाते हैं
निगाहें तक नहीं बस में सँभालें ख़ुद को कैसे हम
करें हम बन्दगी रब की सभी मन मुस्कुराते हैं

© Ambrish Srivastava : अम्बरीष श्रीवास्तव