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चुप्पियाँ तोड़ना जरुरी है

चुप्पियाँ तोड़ना ज़रुरी है
लब पे कोई सदा ज़रुरी है

आइना हमसे आज कहने लगा
ख़ुद से भी राब्ता ज़रुरी है

हमसे कोई ख़फ़ा-सा लगता है
कुछ न कुछ तो हुआ ज़रुरी है

ज़िंदगी ही हसीन हो जाए
इक तुम्हारी रज़ा ज़रुरी है

अब दवा का असर नहीं होगा
अब किसी की दुआ ज़रुरी है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी

आप कहते हैं सरापा गुलमुहर है ज़िन्दगी
हम ग़रीबों की नज़र में इक क़हर है ज़िन्दगी

भुखमरी की धूप में कुम्हला गई अस्मत की बेल
मौत के लम्हात से भी तल्ख़तर है ज़िन्दगी

डाल पर मज़हब की पैहम खिल रहे दंगों के फूल
ख़्वाब के साए में फिर भी बेख़बर है ज़िन्दगी

रोशनी की लाश से अब तक जिना करते रहे
ये वहम पाले हुए शम्सो-क़मर है ज़िन्दगी

दफ़्न होता है जहाँ आकर नई पीढ़ी का प्यार
शहर की गलियों का वो गन्दा असर है ज़िन्दगी

© Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

मक़सद

मक़सद कुछ ज़िंदगी का ऊँचा बना के देख
संकल्प दृढ़ हो मन में, फिर क़दम बढ़ा के देख
तेरी ज़िंदगी भी रोशनी से पुरनूर होगी
किसी की चौखट पे तू भी दीपक जला के देख

© Ajay Sehgal : अजय सहगल

 

कैसट

बीते हुए दिनों की कैसट
जाने कौन चला देता है
ठगा-ठगा सा देख रहा हूँ!

कोहरा ढके ढलान
दहाड़ते जल-प्रपात
जंगल और खलिहान
हाट
त्यौहार और मेले
सम्पर्कों की भीड़
किताबें
यात्रा
पिकनिक
स्कूल को जाते बच्चे
छैला बाबू
माँ, बहिनें, भाई
बेकार बाप
सठियाया बुङ्ढा
गीतों का दीवाना

ये सब
मैं ही हूँ
विश्वास न होता
ठगा-ठगा सा देख रहा हूँ

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

बूंदों की भाषा

खिड़की में से आती धीमी हवा
और ठण्डी फुहार
दिलाती हैं
तुम्हारी कमी का अहसास
और भी तेज़ी से

चाहता है मन,
कि भीगें इस फुहार में
साथ-साथ…
और चलते रहें कहीं दूर
और दूर….

या फिर घर में बैठे रहें
साथ-साथ,
और ढेर सारी बातें करें
धीमे-धीमे!

लेकिन केवल ख़्याल ही हैं ये
मैं बैठी हूँ अकेली
खिड़की से देखती
इस फुहार को
और सोचती हुई
तुम्हारे बारे में
तुम्हारी खिड़की के बाहर भी
बरस रही होंगी बूंदें
उनकी भाषा
तुम समझ पा रहे हो?
वो कह रही हैं जो कुछ
तुम सुन रहे हो ना?

…या फिर
भीगने के डर से
खिड़की बन्द किए
सो रहे हो
आराम से?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

आदि देव

फास्ट-फास्ट-
वह भी सोच-समझकर
-डिक्टेशन लेने में
जवाब नहीं गणेश जी का
और किसी के आदि देव हों न हों
आशुलिपिकों के तो हैं ही!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

मरणधर्मा सम्बन्ध

सम्बन्धों की ऊष्मा लिए
मन को मन से जोड़े
चले थे हम जिस यात्रा पर
नहीं हो पाई है
वह अभी पूरी

सम्भवत:
लक्ष्य ही नहीं
निर्धारित हो पाया सही
या फिर चलने लगे थे
विपरीत दिशा में
हम ही

हमें तो जाना था
मन से आत्मा की ओर
लेकिन लौटे हम देह पर
और देह का तो एक ही धर्म है,
कि वह मरणधर्मा है।

तो उस पर आधारित सम्बन्ध
रह भी कैसे सकता था जीवित
सदा के लिए?

© Sandhya Garg : संध्या गर्ग

 

भविष्य

भविष्य!
वर्तमान से निर्मित होता है
वर्तमान!
भविष्य में प्रतिबिंबित होता है
जो वर्तमान में जीता है
भविष्य उसी का होता है

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

स्मृतियाँ

अधखुली ऑंखों में
थिरकती नन्हीं पुतलियाँ
प्रतिबिम्बों का भार ढो रही हैं
पश्चिम के दरवाज़े पर
प्रतीक्षा से ऊबी
स्मृतियाँ
सिसक-सिकक
रो रही हैं।

– आचार्य महाप्रज्ञ

 

तुम्हारे शहर से जाने का मन है

तुम्हारे शहर से जाने का मन है
यहाँ कोई भी तो अपना नहीं है
महक थी अपनी साँसों में, परों में हौसला भी था
तुम्हारे शहर में आए तो हम कुछ ख़्वाब लाए थे
जमीं पर दूर तक बिखरे–जले पंखो! तुम्हीं बोलो
मिलाकर इत्र में भी मित्र कुछ तेज़ाब ले आए
बड़ा दिल रखते हैं लेकिन हक़ीक़त सिर्फ़ है इतनी
दिखाने के लिए ही बस ये हर रिश्ता निभाते हैं
कि जब तक काम कोई भी न हो इनको किसी से तो
न मिलने को बुलाते हैं, न मिलने ख़ुद ही आते हैं
बहुत नज़दीक जाकर देखने से जान पाए हम
कोई चेहरे नहीं हैं ये मुखौटे ही मुखौटे हैं
हमेशा ही बड़ी बातें तो करते रहते हैं हरदम
पर इनकी सोच के भी क़द इन्हीं के क़द से छोटे हैं
कभी लगता है सारे लोग बाज़ीगर नहीं तो क्या
मज़े की बात है हमको करामाती समझते हैं
हमेशा दूसरों के दिल से यूँ ही खेलने वाले
बड़ा सबसे जहाँ में ख़ुद को जज़्बाती समझते हैं
शिक़ायत हमसे करते हैं कि दुनिया की तरह हमको
समझदारी नहीं आती, वफ़ादारी नहीं आती
हमें कुछ भी नहीं आता, मगर इतना तो आता है
ज़माने की तरह हमको अदाकारी नहीं आती
न जाने शहर है कैसा, न जाने लोग हैं कैसे
किसी की चुप्पियों को भी ये कमज़ोरी समझते हैं
बहुत बचकर, बहुत बचकर, बहुत बचकर चलो तो भी
बिना मतलब, बिना मतलब, बिना मतलब उलझते हैं
शहर की इन फ़िजाओं में अजब-सी बात ये देखी
खुला परिवेश है फिर भी घुटन महसूस होती है
यहाँ अनचाहे-अनजाने से रिश्ते हैं बहुत लेकिन
हर इक रिश्ते की आहट में चुभन महसूस होती है
बहुत मज़बूर होकर हम अगर क़ोशिश करें तो भी
तुम्हारे शहर में औरों के जैसे हो नहीं सकते
बिछाता है कोई काँटे अगर राहों में तो भी हम
किसी की राह में काँटे कभी भी बो नहीं सकते
मिलेंगे अब कहाँ अपने, जगेंगे क्या नए सपने
बुझेगी अब कहाँ पर तिश्नगी ये किसलिए सोचें
चलो खुद सौंप आएँ ज़िन्दगी के हाथ में ख़ुद को
कहाँ ले जाएगी फिर ज़िन्दगी ये किसलिए सोचें
नए रस्ते, नए हमदम, नई मंज़िल, नई दुनिया
भले हों इम्तिहां कितने, कोई अब ग़म नहीं होंगे
सफ़र यूँ ज़िन्दगी का रोज़ कम होता रहे तो भी
सफ़र ज़िन्दादिली का उम्र भर अब कम नहीं होगा
यहाँ नफ़रत के दरिया हैं, यहाँ ज़हरीले बादल हैं
यहाँ हम प्यार की एक बूंद तक को भी तरसते हैं
यहाँ से दूर, थोड़ी दूर, थोड़ी दूर जाने दो
यहाँ हर कूचे में दीवानों पे पत्थर बरसते हैं
ऐ मेरे दोस्त! तुम मरहम लिए बैठे रहो लेकिन
ज़माना ज़ख़्म भरने की इज़ाज़त भी नहीं देगा
हमें फ़ितरत पता है इस शहर की, ये शरीफ़ों को
न जीने चैन से देगा, न मरने चैन से देगा
अगर अपना समझते हो तो मुझसे कुछ भी मत पूछो
समाया है अभी दिल में गहन सागर का सन्नाटा
किसी से कहना भी चाहें तो हम कुछ कह नहीं सकते
हमें ख़ामोश रखता है बहुत अन्दर का सन्नाटा
किसी को फ़र्क क्या पड़ता है जो हम ख़ुद में तन्हा हैं
किसी दिन शाख़ से पत्ते की तरह टूट भी जाएँ
किसी से भी कभी ये सोच करके हम नहीं रूठे
मनाने कौन आएगा, अगर हम रूठ भी जाएँ
तुम्हारे शहर के ये लोग, तुम इनको बताना तो
भला औरों के क्या होंगे ये ख़ुद अपने नहीं हैं
मुसलसल पत्थरों में रह के पत्थर बन गए सब
किसी की आँख में भी प्यार के सपने नहीं हैं
मुझे मालूम है ऐ दोस्त! तुम ऐसे नहीं हो; पर
तुम्हारा दिल दुखाकर मैं भला ख़ुश कब रहूंगा
मगर अब सिर से ऊँचा उठ रहा है रोज़ पानी
मैं अपने दिल पे पत्थर रखके बस तुमसे कहूंगा-
तुम्हारे शहर से जाने का मन है
यहाँ कोई भी तो अपना नहीं है

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी