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ऐसे हालात आने लगे हैं

ऐसे हालात आने लगे हैं
चुटकुले भी रुलाने लगे हैं

एक कविता जमाने की ख़ातिर
उनको कितने ज़माने लगे हैं

होश की बात करने लगा हूँ
आप जब से पिलाने लगे हैं

तुमको पाकर लगा ज़िंदगी में
हाथ मेरे ख़ज़ाने लगे हैं

हो न जाऊँ कहीं बेसहारा
मेरे बच्चे कमाने लगे हैं

© Deepak Gupta : दीपक गुप्ता

 

अलिफ़ लैला

शाह की सबसे चहेती मलिका बेवफ़ा निकली। औरत ज़ात से नफरत हो गई। हर रोज़ नई शादी करता, हर रात सुहागरात। मगर सुबह होते ही हर नई दुल्हन को मौत के घाट उतार दिया जाता। सहराज़ादी, उसके बूढ़े मंत्री की बेटी। उसने भी नृशंस शाह के साथ शादी रचाई। मगर अपने साथ ले गई अपनी छोटी-सी बहन को। रात को सोने से पहले छोटी बहन ने कहानी सुनने की ज़िद्द की। सहराज़ादी ने कहानी छेड़ी जो सुबह तक ख़त्म नहीं हुई। शाह को भी अच्छी लगी। यूँ ही कहानी में से कहानी निकलती चली गई। पूरी 1001 रातें बीत गईं। शाह का हृदय परिवर्तन हुआ। सहराज़ादी आख़िर तक उसकी मलिका बनकर जी।

नीड़ छोड़कर उड़ चला कल्पना पाखी
वह देखो भर रहा काकली
चुभो-चुभो कर चोंच शून्य में मेरे
मण्डराता फिर रहा
बुद्धि के चक्रव्यूह पर

सांझ ढले
रोमिल डैनों के चप्पू
कहाँ तुझे तैरा लाए
रे पगले!

अलिफ़ लैला का माया लोक
बहुत दिन हुए
यहीं तो
राजदुलारे स्वप्न लला
रुन-रुना-रुना आनन्द पैंजनी
किलक-थिरक नाचा करते थे!

दूर खजूरों के पीछे
वह देखो वह
नया ईद का चांद उभर आया है
ऊँची मीनारों से
अल्लाऽऽऽहू अकबर
अल्लाऽऽऽहू अकबर
उठने लगी अज़ानें

दूध नहाए गुंबद
देख रहे हैं
क्या कोई मरमरी स्वप्न?

विरही होगा
जो दूर
रात के सन्नाटे में
बैठा अपनी तड़प कस रहा है
रुबाब के तारों पर

कहवाख़ानों में
दूर-दूर के सौदागर
अपनी थैली के गौहर
नाच लुभा लेने वाले
गुलबदन सनम की अदा-अदा पर
लुटा रहे हैं!

आहिस्त:
आहिस्त:
किसी प्रेत की दन्तावलि-सी
अंधियारे में चमक रहीं
अधखुली खिड़कियाँ
उस नृशंस शाह के महलों की
जिसकी नित्य नई दुल्हनें
हज़ारों
अपनी-अपनी सुहागरात का
देख न पाईं कभी सवेरा!

सहराज़ादी
बूढ़े मंत्री की वह सुघड़ साहसी बेटी
क्या अभिनय कर रही सुलाने का
अपनी नटखट गुड़िया को
बड़ी चतुर है-
जान-बूझ कर
बहुरंगी गाथा-गुत्थी के
लच्छों पर लच्छे
उलझाने लग गई
वाह री गल्प मोहिनी तेरा जादू
फँसा लिया निर्मम साजन को!

बाहर
यह लो लगी सरकने
आसमान के पल्लू की झिलमिली किनारी
प्राची की दुल्हन का
गया उघड़ वह अलस लजाया मुखड़ा
इधर
निशा के मसि पात्र में
झुटपुट घुलने लगी सफेदी

कौन नगरिया
बढ़ा चला जा रहा कारवाँ
टिनटिना टालियाँ
पलकों पर कर रहीं टोटका
नयन झील में लगी तैरने
स्वप्न फरिश्तों की अल्हड़ अलमस्त टोलियाँ
घिर-घिर आने लगी निदरिया!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

हमने तो बस ग़ज़ल कही है

हमने तो बस ग़ज़ल कही है, देखो जी
तुम जानो क्या ग़लत-सही है, देखो जी

अक़्ल नहीं वो, अदब नहीं वो, हाँ फिर भी
हमने दिल की व्यथा कही है, देखो जी

सबकी अपनी अलग-अलग तासीरें हैं
दूध अलग है, अलग दही है, देखो जी

ठौर-ठिकाना बदल लिया हमने बेशक़
तौर-तरीक़ा मगर वही है, देखो जी

बदलेगा फिर समां बहारें आएंगी
डाली-डाली कुहुक रही है, देखो जी

© Charanjeet Charan : चरणजीत चरण

 

पोस्टमार्टम

गोली खाकर
एक के मुँह से निकला –
‘राम’।

दूसरे के मुँह से निकला-
‘माओ’।

लेकिन तीसरे के मुंह से निकला-
‘आलू’।

पोस्टमार्टम की रिपोर्ट है
कि पहले दो के पेट
भरे हुए थे।

© Sarveshwar Dayal Saxena : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

 

न महलों की बुलंदी से

न महलों की बुलंदी से, न लफ़्ज़ों के नगीने से
तमद्दुन में निखार आता है घीसू के पसीने से

कि अब मर्क़ज़ में रोटी है, मुहब्बत हाशिए पर है
उतर आई ग़ज़ल इस दौर में कोठी के ज़ीने से

अदब का आइना उन तंग गलियों से गुज़रता है
जहाँ बचपन सिसकता है लिपट कर माँ के सीने से

बहारे-बेकिरां में ताक़यामत का सफ़र ठहरा
जिसे साहिल की हसरत हो उतर जाए सफ़ीने से

अदीबों की नई पीढ़ी से मेरी ये गुज़ारिश है
संजो कर रक्खें ‘धूमिल’ की विरासत को करीने से

© Adam Gaundavi : अदम गौंडवी

 

पाञ्चजन्य

भुरभुरे आवरण को
लिजलिजाते बरसाती कीड़े
समझते हैं दुर्भेद्य कवच!
इन्हीं अनोखे खिलौनों से
खेलते हैं नटखट बालक
बहुधा करते हैं छेड़छाड़
और फेंक देते हैं कहीं के कहीं
हज़ारों तो बूट तले दब-पिस जाया करते हैं

अचरज की बात
वासुदेव का पाञ्चजन्य
जिसके उद्धोष से
आतताइयों के अन्तर दहल जाते थे
-इसी परिवार
इन्हीं घोंघों का पूर्वज रहा था कभी!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

किरदार खो बैठे

दिलों को जोड़ने वाला सुनहरा तार खो बैठे
कहानी कहते-कहते हम कई किरदार खो बैठे

हमें महसूस जो होता है खुल के कह नहीं पाते
कलम तो है वही लेकिन कलम की धार खो बैठे

हरेक सौदा मुनाफे में पटाना चाहता है वो
मगर डरता भी है, ऐसा न हो, बाजार खो बैठे

कभी ऐसी हवा आई कि सब जंगल दहक उट्ठे
कभी बारिश हुई ऐसी कि हम अंगार खो बैठे

नशा शोहरत का पर्वत से गिरा देता है खाई में
खुद अपने फ़न के जंगल में कई फ़नकार खो बैठे

खुदा होता तो मिल जाता मगर उसके तवक्को में
नजर के सामने हासिल था जो संसार, खो बैठे

मेरी यादों के दफ्तर में कई ऐसे मुसाफिर हैं
चले हमराह लेकिन राह में रफ्तार खो बैठे

हमारे सामने अब धूप है, बारिश है, आंधी है
कि जिसकी छांव में बैठे थे वो दीवार खो बैठे

अगर सुर से मिलाओ सुर तो फिर संगीत बन जाए
वो पायल क्या जरा बजते ही जो झंकार खो बैठे.

© Davendra Gautam : देवेंद्र गौतम

 

ओस की बूँदें पड़ीं तो

ओस की बूँदें पड़ीं तो पत्तियाँ ख़ुश हो गईं
फूल कुछ ऐसे खिले कि टहनियाँ ख़ुश हो गईं

बेख़ुदी में दिन तेरे आने के यूँ ही गिन लिये
एक पल को यूँ लगा कि उंगलियाँ ख़ुश हो गईं

देखकर उसकी उदासी, अनमनी थीं वादियाँ
खिलखिलाकर वो हँसा तो वादियाँ ख़ुश हो गईं

आँसुओं में भीगे मेरे शब्द जैसे हँस पड़े
तुमने होठों से छुआ तो चिट्ठियाँ ख़ुश हो गईं

साहिलों पर दूर तक चुपचाप बिखरी थीं जहाँ
छोटे बच्चों ने चुनी तो सीपीयाँ ख़ुश हो गईं

© Dinesh Raghuvanshi : दिनेश रघुवंशी

 

विश्वामित्र

इन्द्र को हर समय अपने सिंहासन की फ़िक्र लगी रहती है। विश्वामित्र की तपस्या भंग करने के लिए स्वर्ग से मेनका नामक अप्सरा को भेजा गया। वह सफल भी हुई। कहते हैं शकुन्तला, जो आगे

चलकर कण्व ॠषि के आश्रम में पल कर बड़ी हुई, विश्वामित्र और मेनका की ही पुत्री थी।

मत पूछ अप्सरे!
इस मुस्कान का रहस्य मत पूछ
समझ ले कि यूँ ही बस
मुझसे रहा नहीं गया!
तेरी भौहों में तने विजयादर्प की-
डरता हूँ
-कहीं शिंजा ही न टूट जाए!
यह साफ शरारती हँसी
इसमें आग भी लग सकती है।

इन्द्रासन सुरक्षित हुआ
तेरी अर्थ सिद्धि हो गई
अब तू जा
तपोवन हम जैसों के लिए है

मैं कह तो दूँ
पर तू
मात्र अभिनय ही रहा हो
जिसके सम्पूर्ण अस्तित्व का अर्थ
तू समझेगी क्या?

सत्य दर्शन
ये रहस्य की बातें
तू समझ सकती
तो कैसे वह महफिल सजती?
न नाचती होती
हत-बल देवताओं के
ईष्यालु शासक के इशारों पर
और बार-बार यह जो तुझे
नीचे उतर आना होता है
यह भी न होता।

सूने में मधुबन
तू क्या समझती है
कोई अनंग आ कर भर गया?
पर जान सके यदि
है यह भी तपस्या का ही चमत्कार!

वृथा डरता है तेरा लोभी स्वामी
हम तपस्वी तो
किसी का स्वर्ग हड़पने नहीं
अपितु तुझे उतार लाने को
समाधिस्थ होते हैं, नादान!

स्वयं मुक्ति आकर गलबाँहें डाले
कल्पना मूर्ति के अधरों का रसपान
मैंने भगवान को नाचते देखा है
मगर
अब बता कैसे न हँसता?
-वह समझता है कि
मेरी तपस्या धूल कर चला!

© Jagdish Savita : जगदीश सविता

 

मन का मौसम

इस बार गर्मी ने
रिकॉर्ड तोड़ा है
शहर में!

सूरज,
तपती आग का
एक गोला-सा
जैसे निगल ही जाएगा
धरती को….
धरती दिन-रात
जल रही है
तवे की तरह।

लेकिन
न जाने क्यों
नहीं बदला है मौसम
मन के
भीतर का
नहीं पिघल रही है
मन पर जमी बर्फ़
शायद उसे चाहिए
कुछ और तपिश

…गर्मी नहीं
सम्बन्धों की ऊष्मा ही
पिघला सकती है
ये बर्फ़
तभी शायद
मन का मौसम बदलेगा
और जमा है
जो बर्फ़-सा
वो अकेलापन
पिघलेगा।

© संध्या गर्ग