सारी दुनिया समझे

भाषा में जो भाव बंधे, उनको सारी दुनिया समझे अंतरतम कि मूक साधना कोई सरल हिया समझे रास रचाने रात गए किस पागलपन में पाँव बढ़े इसे न मैं भी जानूँ, केवल मेरा साँवरिया समझे उसके ही स्वर जग जाएँ तो फिर घर-घर हो रामायण इक व्यक्ति ऐसा जो सारे जग को राम-सिया समझे अंधियारे का एक लक्ष्य, बस उजियारे को ग्रस लेना इसी चुनौती को नन्हा-सा जलता हुआ दिया समझे जिस दिन यह मन दास हुआ, उस दिन सारा स्वामित्व मिला रहे भिखारी तब तक, जब तक अपने को मुखिया समझे कवि का चित्त कि जो भटकन में ही आश्रय को खोज रहा और किसे यह चाह कि वो चातक का पिया-पिया समझे जाती है वह अमियमयी जिस ओर स्वर्ग बन जाता है इस महिमा को ‘आशुतोष’ की छोटी-सी कुटिया समझे © Ashutosh Dwivedi : आशुतोष द्विवेदी