मैं तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ

मैं लौट जाना चाहती हूँ शब्दों की उन गलियों में जहाँ से कविताएँ गुज़रती हैं कहानियों की गलबहियाँ डाले। मेरी तमाम परेशानियों-नाकामियों के विष को कंठस्थ कर लेने वाली नीलकंठ क़लम मुझे रचने का सौंदर्य दे कि मैं स्याही से लिख सकूँ उजली दुनिया के सफेद अक्षर। मुझे जज़्ब कर हे क़लम! मैं तेरी रोशनाई होना चाहती हूँ। मैं काग़ज़ की देह पर गोदने की तरह उभर आना चाहती हूँ और यह बता देना चाहती हूँ कि काग़ज़ की संगमर्रमरी देह पर लिखी शब्दों की इबारत ताजमहल से बढ़कर ख़ूबसूरत होती है। मुझे गढ़ने की ताक़त दे हे ब्रह्म! मैं संगतराश होना चाहती हूँ। अपने मान-अपमान से परे अपने संघर्ष, अपनी पहचान से परे नाभि से ब्रह्मांड तक गुंजरित शब्द का नाद होना चाहती हूँ। मुझे स्वीकार कर हे कण्ठ मैं गुंजरित राग होना चाहती हूँ। © Alka Sinha : अलका सिन्हा