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आम बाग़ में

तेज़ दोपहर
जब आम बाग़ में
कोयल भी छुप जाया करती है
गहरे में मेरे भीतर
तब कोई
तेरा नाम ले चहका करता है
विश्वास नहीं होता
कभी मैं और तुम
हम-उम्र हुआ करते थे
बचपन से तुम यौवन तक पहुँची हो
मैं सदियों बूढ़ा
कछुए-सा
अपने खोल में मुँह दुबकाए
उसी पुराने आम बाग़ में
अपनी पीठ पर
कई-कई मन आम उठाता हूँ
शाम का छींटा बाग़ीचे में
जब पड़ता है
कली-कली, पत्ता-पत्ता
तेरी याद से महका करता है
देर रात जब उस झुरमुट में
चांद उतरने लगता है
एक ख़्वाब तेरे आने का
दिल में दहका करता है
उस टहनी से उलझा
तेरा आँचल
अब तक लहराता है
अब भी उसकी ख़ुशबू से
मेरा मन बहका करता है
मेरा चेहरा थोड़ा
और दरक जाता है
जब मैं तुम्हारा हम-उम्र
दिखता हूँ तुम से
सदियों बूढ़ा
तुम्हारा नाम दबाकर
होंठों में
कहता हूँ-
”सलाम मेमसाब!
आम लेते जाइए
इस बार बड़े मीठे हैं”
तुम पूछती हो-
”तुमने खाए हैं क्या?”
मैं घबरा कर कहता हूँ-
”बचपन से सुनता आया हूँ
इस बाग़ के आम
बड़े मीठे होते हैं!”
गहरे में मेरे भीतर
तब भी कोई
तेरा नाम ले
चहका करता है।

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

 

छल

मेरे गीतों का कहना है,
मैं उनसे छल कर बैठी हूँ

लिखने बैठी थी नेह मग़र पीड़ा के छंद बना बैठी
अनुबंधों की सीमाओं तक, बिखरे संबंध बना बैठी
इक ताना-बाना बुनने बैठी थी मैं अपने जीवन का
शब्दों से मन के आँचल में झीने पैबन्द बना बैठी

बतलाते हैं मुझको अक्षर, अपराध नहीं ये क्षम्य कभी
रच कर सारे उल्टे सतिये, पल-पल मंगल कर बैठी हूँ

इन गीतों को विश्वास रहा, मैं अक्षर चंदन कर दूंगी
अमरत्व पिए आनंद जहां, कविता नंदनवन कर दूंगी
सुख गाएगा कविता मेरी, दुख गूंगा होकर तरसेगा
जिस रोज़ स्वरा बन गाऊँगी, धरती में स्पंदन कर दूंगी

लेकिन पन्नों पर वो उतरा, जो मेरे मन में बैठा था
गीतों की दुनिया में तबसे, परिचय ‘पागल’ कर बैठी हूँ

सुन गीत! प्रभाती मन रख कर, संध्या का गान नहीं गाते
सूखे सावन के आंगन में मेघों के राग नहीं भाते
प्यासे के कुल जन्मीं कोई, गंगा अभिजात नहीं होती
हो भाग अमावस जिनके वो, चंदा को ब्याह नहीं लाते

इतने पर भी ‘मन हार गया’, मुझको ऐसा स्वीकार नहीं
सपनों के बिरवे बो-बो कर, आंखे जंगल कर बैठी हूँ

कैसे समझाऊं इन सबको, ये गीत नहीं हैं, दुश्मन हैं
इनसे कुछ भी अनछुआ नहीं, ये गीत नहीं, मेरा मन है
इनको तजना असमंजस तो इनसे बचना अपराध हुआ
ये राधा हैं, ये कान्हा हैं, ये गीत नहीं, वृंदावन है

जैसे भी हो मुस्काना है, गीतों की ख़ातिर गाना है
दो-चार उजालों की ख़ातिर, जीवन काजल कर बैठी हूँ

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

बांधो न नाव इस ठाँव बंधु!

बांधो न नाव इस ठाँव बंधु!
पूछेगा सारा गाँव बंधु!

यह घाट वही जिस पर हँसकर
वह कभी नहाती थी धँसकर
आँखें रह जाती थीं फँसकर
कँपते थे दोनों पाँव बंधु!

वह हँसी बहुत कुछ कहती थी
फिर भी अपने में रहती थी
सबकी सुनती थी, सहती थी
देती थी सबके दाँव बंधु!

© Suryekant Tripathi ‘Nirala’ : सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’

 

क्यों?

क्यों सुखों को ब्याहने की चाह में
तुम दुखों की मांग फिर से भर चले?

कब कहा था जुगनुओं के प्राण ले
तुम उजाला घर हमारे बांटना?
हम न मांगेंगे कभी अब रश्मियां
बस नयन में रजनियाँ मत आंजना

हम नहीं उस ओर आएँगे कभी
तुम जिसे प्राची दिशा कहकर चले

है अभागे भाग्यवीरो का चयन
चल पड़ें हैं नापने नियति चरण
ये न हो इच्छाओं के अमरत्व को
मिल सके उस लोक बस जीवन-मरण

सब उड़ाने टूटकर बिखरी वहीं
जिस तरफ़ उन पंछियों के पर चले

चंद्रहारों की दमक विष घोलती
चूड़ियों से चूड़ियां अनबोलती
डस न ले उसको कहीं काली घटा
अब नहीं वो कुन्तलों को खोलती

तुम गए परदेस क्या ऐसा लगा
ज्यों सुहागिन के सभी ज़ेवर चले

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

वह चाहती है

मांगती है
यह धरा
अब इक नई आकाश-गंगा
और नया ही चांद-सूरज
चाहती है मुक्त होना
सतत् इस दिन-रात से
छोड़ उजियारे पराए
निज के अंधियारे जलाए
हो के ताज़ा दम ये धरती
स्वयं अपना सूर्य होना चाहती है
चाहती है तोड़कर
जीर्ण सारी मान्यताएँ
ख़ुद रचे इक सौर्य-मंडल
ख़ुद से नभ-तारे बनाए
काटती चक्कर युगों से
अब स्वयं यह केन्द्र होना चाहती है
चाह कर भी चाह ना पाई कभी जो
मुक्त होकर उस रुदन से

© Vivek Mishra : विवेक मिश्र

 

तेरी महफ़िल में चले आए हैं

तेरी महफ़िल में चले आए हैं लाशों की तरह
और आए हैं तो जी कर ही उठेंगे साक़ी
तूने बरसों जिसे आँखों में छिपाए रखा
आज उस जाम को पी कर ही उठेंगे साक़ी

© Ashutosh Dwivedi : आशुतोष द्विवेदी

 

धीर धरना!

जब फलित होने लगे उपवास मन का,
धीर धरना!

मौन से सुनने लगो जब एक उत्तर, मुस्कुराना!
चैन से मिलने लगें दो नैन कातर, मुस्कुराना!
एक पल में, सांस जब भरने लगे मन के वचन सब
पीर से जब सीझनें लग जाएं पत्थर, मुस्कुराना!

बस प्रलय से एक बिंदु कम, नयन में
नीर भरना,
धीर धरना!

चन्द्रमा के पग चकोरी की तरफ चलने लगेंगे
नैन के भी नैन में प्रेमी सपन पलने लगेंगे
क्या सहा है प्रेम ने बस इक मिलन को, देखकर ही,
छटपटा कर, इस विरह के प्राण ख़ुद गलने लगेंगे

सीख जाएंगे मुरारी, बांसुरी की
पीर पढ़ना,
धीर धरना!

खेलने को हर घड़ी सब वार कर प्रस्तुत रहा है
जीतता केवल तभी जब भाग्य भी प्रत्युत रहा है
काम है ये हर सदी में कुछ निराले बावलों का
प्रेम में सब हार कर सब जीतना अद्भुत रहा है

एक तिनके के भरोसे,
जिंदगी का नीड़ गढ़ना
धीर धरना!

© Manisha Shukla : मनीषा शुक्ला

 

यथोचित

पुराने वस्त्र को
सम्मान दिया जा सकता है
पर ओढ़ा नहीं जा सकता
ओढ़ा वही जाएगा
जो बचा सकता है
सर्दी से
धूप से
वर्षा से
आंधी से

फूल को चाहिए कि
वह कली को स्थान दे
कली को चाहिए कि
वह फूल को सम्मान दे
पतझड़ को रोका नहीं जा सकता
कोंपल को टोका नहीं जा सकता

© Acharya Mahapragya : आचार्य महाप्रज्ञ

 

जाड़े की धूप

बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

ताते जल नहा, पहन श्वेत वसन आई
खुले लान बैठ गई, दमकती लुनाई
सूरज खरगोश धवल, गोद उछल आया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

नभ के उद्यान-छत्र तले मेज; टीला
पड़ा हरा फूल कढ़ा मेजपोश पीला
वृक्ष खुली पुस्तक, हर पृष्ठ फड़फड़ाया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

पैरों में मखमल की जूती-सी-क्यारी
मेघ ऊन का गोला बुनती सुकुमारी
डोलती सलाई हिलता जल लहराया
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया

बोली कुछ नहीं, एक कुर्सी की खाली,
हाथ बढ़ा छज्जे की साया सरकाली,
बाँह छुड़ा भागा, गिर बर्फ हुई छाया।
बहुत दिनों बाद मुझे धूप ने बुलाया।

© Sarveshwar Dayal Saxena : सर्वेश्वर दयाल सक्सेना

 

सरोज-स्मृति

उनविंश पर जो प्रथम चरण
तेरा वह जीवन-सिन्धु-तरण:
तनये, ली कर दृक्पात तरुण
जनक से जन्म की विदा अरुण!
गीते मेरी, तज रूप-नाम
वर लिया अमर शाश्वत विराम
पूरे कर शुचितर सपर्याय
जीवन के अष्टादशाध्याय,
चढ़ मृत्यु-तरणि पर तूर्ण-चरण
कह- “पित:, पूर्ण आलोक वरण
करती हूँ मैं, यह नहीं मरण,
‘सरोज’ का ज्योति:शरण-तरण”-

अशब्द अधरों का, सुना, भाष,
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
जीवित-कविते, शत्-शत्-जर्जर
छोड़कर पिता को पृथ्वी पर
तू गयी स्वर्ग, क्या यह विचार-
“जब पिता करेंगे मार्ग पार
यह, अक्षम अति, तब मैं सक्षम,
तारूंगी कर गह दुस्तर तम?”
कहता तेरा प्रयाण सविनय,-
कोई न अन्य था भावोदय।
श्रावण-नभ का स्तब्धान्धकार
शुक्ला प्रथमा, कर गयी पार!
धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित कर न सका!
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख सका न वे दृग विपन्न,
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।
सोचा है नत हो बार-बार-
“यह हिंदी का स्नेहोपहार,
यह नहीं हार मेरी भास्वर
वह रत्नहार-लोकोत्तर वर।”
अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध
साहित्य-कला-कौशल-प्रबुद्ध,
हैं दिए हुए मेरे प्रमाण
कुछ वहाँ, प्राप्ति को समाधान,-
पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त
गद्य में पद्य में समाभ्यस्त।
देखें वे; हँसते हुये प्रवर
जो रहे देखते सदा समर,
एक साथ जब शत् घात घूर्ण
आते थे मुझ पर तुले तूर्ण,
देखता रहा मैं खड़ा अपल
वह शर-क्षेप वह रण-कौशल।
व्यक्त हो चुका चीत्कारोत्कल
क्रुद्द युद्ध का रुद्ध-कण्ठ फल।
और भी फलित होगी वह छवि,
जागे जीवन जीवन का रवि,
लेकर कर कल तूलिका कला,
देखो क्या रंग भरती विमला,
वांछित उस किस लांक्षित छवि पर
फेरती स्नेह की कूची भर।
अस्तु मैं उपार्जन को अक्षम
कर नहीं सका पोषण उत्तम
कुछ दिन को, जब तू रही साथ
अपने गौरव से झुका माथ,
पुत्री भी, पिता गेह में स्थिर,
छोड़ने के प्रथम जीर्ण अजिर।
आँसुओं सजल दृष्टि की छलक
पूरी न हुई जो रही कलक
प्राणों की प्राणों में दबकर
कहती लघु-लघु उसाँस में भर:
समझता हुआ मैं रहा देख
हटती भी पथ पर दृष्टि टेक।
तू सवा साल की जब कोमल,
पहचान रही ज्ञान में चपल,
माँ का मुख, हो चुम्बित क्षण-क्षण,
भरती जीवन में नव-जीवन,
वह चरित पूर्ण कर गई चली,
तू नानी की गोद जा पली।
सब किये वहीं कौतुक-विनोद
उस घर निशि-वासर भरे मोद;
खाई भाई की मार विकल
रोई, उत्पल-दल-दृग-छलछल;
चुमकारा सिर उसने निहार,
फिर गंगा-तट-सैकत-विहार
करने को लेकर साथ चला,
तू गहकर हाथ चली चपला;
आँसुओं धुला मुख हासोच्छल,
लखती प्रसार वह ऊर्मि-धवल।
तब भी मैं इसी तरह समस्त
कवि-जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अबाध गति मुक्त छन्द,
पर सम्पादकगण निरानन्द
वापस कर देते पढ़ सत्वर
रो एक-पंक्ति-दो में उत्तर।

लौटी रचना लेकर उदास
ताकता रहा मैं दिशाकाश
बैठा प्रान्तर में दीर्घ प्रहर
व्यतीत करता था गुन-गुन कर
सम्पादक के गुण; यथाभ्यास
पास की नोचता हुआ घास
अज्ञात फेंकता इधर-उधर
भाव की चढ़ी पूजा उन पर।
याद है, दिवस की प्रथम धूप
थी पड़ी हुई तुझ पर सुरूप,
खेलती हुई तू परी चपल,
मैं दूरस्थित प्रवास से चल
दो वर्ष बाद, होकर उत्सुक
देखने के लिए अपने मुख
था गया हुआ, बैठा बाहर
आंगन में फाटक के भीतर
मोढ़े पर, ले कुण्डली हाथ
अपने जीवन की दीर्घ गाथ।
पढ़, लिखे हुए शुभ दो विवाह
हँसता था, मन में बढ़ी चाह
खण्डित करने को भाग्य-अंक,
देखा भविष्य के प्रति अशंक।

इससे पहले आत्मीय स्वजन
सस्नेह कह चुके थे, जीवन
सुखमय होगा, विवाह कर लो
जो पढ़ी-लिखी हो-सुन्दर हो।

आए ऐसे अनेक परिणय,
पर विदा किया मैंने सविनय
सबको, जो अड़े प्रार्थना भर
नयनों में, पाने को उत्तर
अनुकूल, उन्हें जब कहा निडर-
“मैं हूं मंगली”, मुड़े सुनकर।
इस बार एक आया विवाह
जो किसी तरह भी हतोत्साह
होने को न था, पड़ी अड़चन,
आया मन में भर आकर्षण
उन नयनों का, सासु ने कहा-
“वे बड़े भले जन हैं, भय्या
एन्ट्रेंन्स पास है लड़की वह,
बोले मुझसे- ‘छब्बीस ही तो
वर की है उम्र, ठीक ही है,
लड़की भी अट्ठारह की है।’
फिर हाथ जोड़ने लगे, कहा-
‘वे नहीं कर रहे ब्याह, अहा,
हैं सुधरे हुए बड़े सज्जन!
अच्छे कवि, अच्छे विद्वज्जन!
हैं बड़े नाम उनके! शिक्षित
लड़की भी रूपवती; समुचित
आपको यही होगा कि कहें
हर तरह उन्हें; वर सुखी रहें।’
आएंगे कल।” दृष्टि थी शिथिल,
आई पुतली तू खिल-खिल-खिल
हँसती, मैं हुआ पुन: चेतन
सोचता हुआ विवाह-बन्धन।

कुण्डली दिखा बोला- “ए-लो”
आई तू, दिया, कहा- “खेलो!”
कर स्नान-शेष, उन्मुक्त-केश
सासुजी रहस्य–स्मित सुवेश
आईं करने को बातचीत
जो कल होने वाली, अजीत
संकेत किए मैंने अखिन्न
जिस ओर कुण्डली छिन्न-भिन्न;
देखने लगीं वे विस्मय भर
तू बैठी संचित टुकड़ों पर।
धीरे-धीरे फिर बढ़ा चरण,
बाल्य की केलियों का प्रांगण
कर पार, कुंज-तारुण्य सुघर
आई, लावण्य-भार थर-थर
काँपा कोमलता पर सस्वर
ज्यों मालकोश नव वीणा पर :
नैश स्वप्न ज्यों तू मन्द-मन्द
फूटी ऊषा जागरण-छन्द,
काँपी भर निज आलोक-भार,
काँपा वन, काँपा दिक्-प्रसार।

परिचय-परिचय पर खिला सकल-
नभ, पृथ्वी, द्रुम, कलि, किसलय-दल।
क्या दृष्टि! अतल की सिक्त-धार
ज्यों भोगावती उठी अपार;
उमड़ता ऊर्ध्व को कल सलील
जल टलमल करता नील-नील,
पर बंधा देह के दिव्य बांध,
छलकता दृगों से साध-साध।
फूटा कैसा प्रिय कण्ठ-स्वर
माँ की मधुरिमा व्यंजना भर
हर पिता-कण्ठ की दृप्त धार
उत्कलित रागिनी की बहार!

बन जन्मसिद्ध गायिका, तन्वि,
मेरे स्वर की रागिनी वह्नि
साकार हुई दृष्टि में सुघर,
समझा मैं क्या संस्कार प्रखर।
शिक्षा के बिना बना वह स्वर
है, सुना न अब तक पृथ्वी पर!
जाना बस, पिक-बालिका प्रथम
पल अन्य नीड़ में जब सक्षम
होती उड़ने को, अपना स्वर
भर करती ध्वनित मौन प्रान्तर।
तू खिंची दृष्टि में मेरी छवि,।
जागा उर में तेरा प्रिय कवि,
उन्मनन-गुंज सज हिला कुंज
तरु-पल्लव कलिदल पुंज-पुंज
बह चली एक अज्ञात बात
चूमती केश-मृदु नवल गात,
देखती सकल निष्पलक-नयन
तू, समझा मैं तेरा जीवन।
सासु ने कहा लख एक दिवस:-
“भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना-पोसना रहा काम,
देना ‘सरोज’ को धन्य-धाम,
शुचि वर के कर, कुलीन लखकर,
है काम तुम्हारा धर्मोत्तर;
अब कुछ दिन इसे साथ लेकर
अपने घर रहो, ढूंढकर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह।”
सुनकर, गुनकर चुपचाप रहा,
कुछ भी न कहा,-न अहो, न अहा;
ले चला साथ मैं तुझे, कनक
ज्यों भिक्षुक लेकर, स्वर्ण-झनक
अपने जीवन की, प्रभा विमल
ले आया निज गृह-छाया-तल।
सोचा मन में हत बार-बार-
“ये कान्यकुब्ज-कुल-कुलांगार;
खाकर पत्तल में करें छेद,
इनके कर कन्या, अर्थ खेद,
इस विषय-बेलि में विष ही फ़ल,
यह दग्ध मरुस्थल-नहीं सुजल।”

फिर सोचा- “मेरे पूर्वजगण
गुजरे जिस राह, वही शोभन
होगा मुझको, यह लोक-रीति
कर दूँ पूरी, गो नहीं भीति
कुछ मुझे तोड़ते गत विचार;
पर पूर्ण रूप प्राचीन भार
ढोते मैं हूँ अक्षम; निश्चय
आएगी मुझमें नहीं विनय
उतनी जो रेखा करे पार
सौहार्द-बन्ध की, निराधार।
वे जो जमुना के-से कछार
पद फटे बिवाई के, उधार
खाए के मुख ज्यों, पिये तेल
चमरौधे जूते से सकेल
निकले, जी लेते, घोर-गन्ध
उन चरणों को मैं यथा अन्ध,
कल घ्राण-प्राण से रहित व्यक्ति
हो पूजूँ, ऐसी नहीं शक्ति।
ऐसे शिव से गिरिजा-विवाह
करने की मुझको नहीं चाह।”

फिर आई याद- ‘मुझे सज्जन
है मिला प्रथम ही विद्वज्जन
नवयुवक एक, सत्साहित्यिक,
कुल कान्यकुब्ज, यह नैमित्तिक
होगा कोई इंगित अदृश्य,
मेरे हित है हित यही स्पृश्य
अभिनन्दनीय।’ बंध गया भाव,
खुल गया ह्रदय का स्नेह-स्राव,
खत लिखा, बुला भेजा तत्क्षण,
युवक भी मिला प्रफुल्ल, चेतन।
बोला मैं- “मैं हूँ रिक्त-हस्त
इस समय, विवेचन में समस्त-
जो कुछ है मेरा अपना धन
पूर्वज से मिला, करूँ अर्पण
यदि महाजनों को, तो विवाह
कर सकता हूँ, पर नहीं चाह
मेरी ऐसी, दहेज देकर
मैं मूर्ख बनूँ, यह नहीं सुघर,
बारात बुलाकर मिथ्या व्यय
मैं करूँ, नहीं ऐसा सुसमय।

तुम करो ब्याह, तोड़ता नियम
मैं सामाजिक योग के प्रथम,
लग्न के; पढ़ूंगा स्वयं मन्त्र
यदि पण्डितजी होंगे स्वतन्त्र।
जो कुछ मेरे, वह कन्या का,
निश्चय समझो, कुल धन्या का।”
आये पण्डितजी, प्रजावर्ग,
आमन्त्रित साहित्यिक, ससर्ग
देखा विवाह आमूल नवल,
तुझ पर शुभ पड़ा कलश का जल।
देखती मुझे तू, हँसी मन्द,
होंठों में बिजली फँसी, स्पन्द
उर में भर झूली छबि सुन्दर,
प्रिय की अशब्द शृंगार-मुखर
तू खुली एक-उच्छ्वास-संग,
विश्वास-स्तब्ध बंध अंग-अंग,
नत नयनों से आलोक उतर
काँपा अधरों पर थर-थर-थर।
देखा मैंने, वह मूर्ति-धीति
मेरे वसन्त प्रथम गीति-

शृंगार, रहा जो निराकार
रस कविता में उच्छ्वसित-धार
गाया स्वर्गीया-प्रिया-संग-
भरता प्राणों में राग-रंग,
रति-रूप प्राप्त कर रहा वही,
आकाश बदलकर बना मही।
हो गया ब्याह, आत्मीय स्वजन
कोई थे नहीं, न आमन्त्रण
था भेजा गया, विवाह-राग
भर रहा न घर निशि-दिवस जाग;
प्रिय मौन एक संगीत भरा
नव जीवन के स्वर पर उतरा।
माँ की कुल शिक्षा मैंने दी,
पुष्प-सेज तेरी स्वयं रची,
सोचा मन में- “वह शकुन्तला,
पर पाठ अन्य यह, अन्य कला।”
कुछ दिन रह गृह तू फिर समोद,
बैठी नानी की स्नेह-गोद।
मामा-मामी का रहा प्यार,
भर जलद धरा को ज्यों अपार;
वे ही सुख-दुख में रहे न्यस्त;
तेरे हित सदा समस्त, व्यस्त;
वह लता वहीं की, जहाँ कली
तू खिली, स्नेह से हिली, पली,
अन्त भी उसी गोद में शरण
ली, मूंदे दृग वर महामरण!

मुझ भाग्यहीन की तू सम्बल,
युग वर्ष बाद जब हुई विकल,
दु:ख ही जीवन की कथा रही,
क्या कहूँ आज, जो नहीं कही!
हो इसी कर्म पर वज्रपात
यदि धर्म, रहे नत सदा माथ
इस पथ पर, मेरे कार्य सकल
हों भ्रष्ट शीत के-से शतदल!
कन्ये, गत कर्मों का अर्पण
कर, करता मैं तेरा तर्पण!

© Suryakant Tripathi : सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’