उऋण

परदेस गए बेटे ने सन्देश भेजा है माँ को कि कुछ भेजे उसके लिए …कुछ मीठा ….कुछ नमकीन भी। फिर नींद नहीं आई माँ को रात भर यही सोच कर कि कैसे रह रहा होगा? …कितना याद कर रहा होगा? होगा कितना अकेला? तभी तो, उसे मीठा और नमकीन भी याद आया। क्या भेजे? कैसे भेजे? क्या-क्या भेज डाले? यही सब सोच रही है माँ, और ख़ुश भी है कि बेटा कहीं ‘मिस’ कर रहा है उसे! लेकिन नहीं जानती वो कि ढेर सारे डॉलर कमाने वाले बेटे के लिए नहीं रहा है कुछ भी दुर्लभ! भूमंडलीकरण ने जुटा दिया है सब कुछ उसकी पहुँच के भीतर। वह तो केवल दोहरा रहा है, बचपन का एक खेल जिसे भूल चुकी है माँ…. जब सब कुछ जानते हुए भी उसकी ख़ुशी के लिए बन जाती थी अनजान और देख कर उसके चेहरे की ख़ुशी भर आती थी आँखें। अब बेटे ने भी दोहराया है वही खेल। जानता है वह कि उसके कुछ मांगने पर खिल उठेगा माँ का चेहरा और गीली आँखों से जब माँ मुस्कुराएगी तो शायद वह उतार देगा ऋण बचपन की ख़ुशी का! © Sandhya Garg : संध्या गर्ग