आज पितामह सोच रहे हैं

आज पितामह सोच रहे हैं शर शैय्या पर लेटे लेटे। दूर गगन से रहीं चिढ़ाती ब्रह्मचर्य की परिभाषाएं सारे त्याग खड़े कोने में सहमे सहमे दुबके दुबके, जिस पौरूष से तुमने अपनी इच्छाओं को हरा दिया था हारी हुयी कामनाएं वह सिसक रहीं थी चुपके चुपके, तन कुछ कहना चाह रहा पर रही चेतना मौन लपेटे। बल का दुरुपयोग क्या! तुम सम्यक् उपयोग नहीं कर पाये माना सम्मुख अंतरिक्ष था किंतु न छोड़ी तुमने कक्षा किनके लिये जिये हो जीवन क्या इससे पहले भी सोचा ? सारी सृष्टि बाद थी पहले सिंहासन की रही सुरक्षा, उसी राज्य के लिये मर रहे ये धृतराष्ट्र पाण्डु के बेटे । तब तक नील गगन में रक्तिम बादल का टुकड़ा लहराया सहसा आया याद कि जैसे बीच सभा द्रोपदी पुकारी फिर मन चिंतामग्न हो गया राज्य पाण्डव ले जायेंगे आखिर कौन बनेगा मेरे पापों का उत्तराधिकारी तब तक वासुदेव, आ पहुँचे होंठो में मुस्कान समेटे- © Gyan Prakash Aakul : ज्ञान प्रकाश आकुल